धर्मनिरपेक्षता Vs पंथनिरपेक्षता

भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है अर्थात्‌ प्रत्येक व्यक्ति को अपने इच्छानुसार किसी भी धर्म को मानने,आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है। इसके साथ ही राज्य का कोई धर्म नहीं होगा और प्रत्येक धर्म के साथ सर्वधर्मसमभाव का व्यवहार करेगा।
      जब हम Secularism का हिन्दी अनुवाद करते हैं तो वह धर्मनिरपेक्ष या पंथनिरपेक्ष होता है। लेकिन धर्म और पंथ में अन्तर है इसलिए धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिरपेक्षता का उपयोग किया जाता है।
     धर्म का मूल अर्थ है- 'कर्त्तव्य'
यह अच्छी और सीखने की बात है कि हमारी प्राचीन परम्परा में धर्म एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता था। प्रत्येक व्यक्ति, समुदाय, संस्था या समाज के लिए धर्म बनाया गया था। धर्मयुक्त जीवन ही विशिष्ट जीवन है। धर्म में लालच या इच्छा नहीं होती। प्रकृति अपने धर्म का पालन करती है। नदी की कोई इच्छा नहीं है। वृक्ष को कोई लालच नहीं है। धर्म स्वत: प्रस्फुटित होता है।
प्रकृति धर्म से संचालित होती है और यह धर्म आरोपित नहीं है। धर्म का अर्थ है- कर्त्तव्य। पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, शिक्षक का धर्म, व्यक्ति का धर्म, नागरिक का धर्म, समाज का धर्म, राजा का धर्म और राष्ट्र का धर्म। प्राचीन भारतीय समाज या ऋग्वैदिक समाज धर्म पर आधारित था जहां प्रत्येक व्यक्ति और समाज का धर्म था।यह धर्म उसके कर्त्तव्य से मापा जाता था। एक पिता या पुत्र का क्या कर्त्तव्य है या एक राजा या प्रजा का क्या कर्त्तव्य है।

   पंथ का अर्थ है- उपासना पद्धति
इसलिए जब हम 'धर्मनिरपेक्षता' का प्रयोग करते हैं तो कहीं न कहीं यह 'कर्त्तव्य निरपेक्षता' से जुड़ जाता है और भारतीय संविधान कर्त्तव्य निरपेक्षता की बात नहीं करता। कर्त्तव्य तो हमारा मूल स्वभाव है। हमारी जीवन पद्धति, संस्कृति, हमारे धर्म ग्रंथ, हमारी परम्परा कर्तव्यों की बात करते हैं। कर्त्तव्य हमारे जीवंत होने की पहचान है।
   इसलिए जब हम Secularism का हिन्दी अनुवाद करते हैं तो वहां धर्मनिरपेक्षता की जगह पंथनिरपेक्षता ज्यादा उचित प्रतीत होता है। इसलिए भारतीय संविधान में 'सम्पूर्णप्रभुत्वसंपन्न', 'समाजवादी' शब्द के साथ 'पंथनिरपेक्षता' का प्रयोग किया गया है। ध्यातव्य है कि समाजवादी तथा पंथनिरपेक्षता; ये दोनों ही शब्द हमारे मूल संविधान के भाग नहीं थे बल्कि इसे 42 वें संविधान संशोधन 1976, आपातकाल का समय और इन्दिरा गांधी सरकार द्वारा संविधान में जोड़ा गया।
हालांकि पंथनिरपेक्षता को दिखाने के लिए इस शब्द का प्रयोग जरूरी नहीं क्योंकि पिछले ढाई हजार सालों से यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है। यह हमारी आत्मा का भाग है; सैकड़ों सालों से हम अलग अलग सम्प्रदायों के साथ मिलकर रह रहे हैं और यहीं हमारी विभिन्नता में एकता है। यहीं वजह है कि मूल संविधान में इसका प्रयोग नहीं किया गया होगा क्योंकि इसे 'शब्द' देने की जरूरत नहीं; यह हमारा हिस्सा है।

पंथ का अर्थ उपासना पद्धति से है। कई बार हमारी संस्कृति एक होती है परंतु उपासना पद्धति अलग-अलग हो सकती है। जैसे कि हिन्दू धर्म में ही अलग अलग पंथ हैं जैसे कोई शिव की पूजा करता है, कोई विष्णु की या कोई दुर्गा की। इन सबके पंथ अलग हैं किन्तु संस्कृति एक है। इस तरह एक ही संस्कृति में पंथ अलग अलग हो सकते हैं। वैसे ही बौद्ध, जैन, मुस्लिम, सिख, ईसाई, यहूदी अलग-अलग पंथ हैं। 
पंथनिरपेक्षता हमारी पहचान है क्योंकि यह कोई नया नहीं है। यह सैकड़ों सालों से हमारी सभ्यता और संस्कृति का हिस्सा रहा है। हम इसमें घुले हुए हैं और शताब्दियों से हम ऐसे ही रह रहे हैं। तो कोई नयी चीज या नया विचार हमें इससे अलग नहीं कर सकता और ना ही कोई नया शब्द हमें इससे परिचित करा सकता है।
सूफ़ी और भक्ति दोनों ही हमारे यहां समान पूजनीय हैं। दोनों को ही एक ही ईश्वर को प्राप्त होना है; तरीके अलग हो सकते हैं पर ईश्वर एक है। ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दिन औलिया उतने ही हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं जितने कि तुलसी, मीरा और सुर। हम दोनों को पढ़ते हैं और दोनों ही संपूर्णप्रभुत्वसंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य भारत की पहचान हैं।
तो हमें नहीं लगता कि पंथनिरपेक्षता पर वाद-विवाद होने का कोई कारण है; हाँ लेकिन इसे 'धर्म' से अलग करके देखना चाहिए क्योंकि धर्म का क्षेत्र पंथ से काफी बड़ा है। वस्तुतः पंथ, धर्म में समाहित हो जाता है। अगर आप धर्म का पालन करते हैं तो पंथ अपने आप उसमें समाहित हो जाता है।
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टिप्पणियाँ

  1. कर्तव्य से तात्पर्य क्या है ..?

    जो समाज या लोग बताए वो या जो स्वयं का विवेक बतलाए।

    मुझे लगता है पंथ इंसान से उसकी स्वतंत्रता छीन लेता है, और जब तक hm स्वयं को n जाने तब तक मूल धर्म को नहीं जाने सकते।

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    उत्तर
    1. कर्त्तव्य जो विवेक बताए और विवेक का उदय तब होता है जब अहं (I) का नाश हो जाता है।

      संविधान आपको पंथ निरपेक्षता देता है; बाकी आप पंथ में भरोसा करें, ना करें या तटस्थ रहें यह आपका व्यक्तिगत निर्णय है; राज्य इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा.
      अगर आप मानते हैं कि पंथ स्वतंत्रता छीन लेता है तो आप उससे तटस्थ रह सकते हैं।

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