अन्तर्दृष्टि

क्या आपको पता है हम सभी एक विशेष प्रकार से सोचने के आदि हैं। देखिए, सोचना (thinking) हमारे मस्तिष्क की प्रकिया है। हमारे मन में विचार आते रहते हैं। अब सवाल ये उठता है ये विचार क्यों आते हैं।
देखिए सोचना का संबंध है आपके अनुभवों से। आपने अपने अब तक के जीवन काल में जितने तरह के अनुभव लिए हैं वह सभी स्मृति के रूप में आपके अंदर इकट्ठी होती चली जाती है और यह स्मृतियाँ विचार का रूप लेती हैं। कल्पना कीजिए किसी मशीन या कोई शक्ति से आपके स्मृतियों को मिटा दिया जाए, आपके अंदर कोई स्मृति नहीं बची है तो क्या तब विचार आएगा? नहीं, तब आपके अंदर कोई विचार नहीं होगा; फिर धीरे धीरे आप नए नए अनुभवों से नई नई स्मृतियों को ग्रहण करेंगे फिर उसके अनुसार आपकी विचार प्रक्रिया काम करेगी।
इसलिए हमने कहा हम एक विशेष प्रकार से सोचने के आदी हैं और यह इस पर निर्भर करता है कि आपका पालन पोषण आपकी conditioning कैसे हुई है। हम जिस समाज में रहते हैं, जिन लोगों के बीच रहते हैं, जिस परिवार में रहते हैं, जिन संस्थाओं से जुड़े हैं कोई स्कूल या कोई धर्म; यह सभी हमारे सोचने के तरीके को बनाते हैं। संस्कृति हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करती है; पर य़ह तब तक है जब तक आप स्वयम से सत्य तक पहुंचना ना सीख जाएं। पर यह बहुत कम लोग कर पाते हैं क्योंकि एक बार हमें जैसा बना दिया जाता है हम वैसे जीने के आदी हो जाते हैं।
जब हम बचपन में होते हैं तो हर चीज़ को जानने को लेकर बहुत उत्सुक रहते हैं, बहुत सारे सवाल पूछते हैं पर जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं हमारी उत्सुकता मरती जाती है और हम चीजों को वैसे ही मानने लगते हैं। तो 'बड़ा होना' अंततः छोटा होना है क्योंकि यह हमारे सीखने की प्रक्रिया को मारती जाती है और हम अपने पूर्वाग्रहों और विश्वासों के प्रति कट्टर होने लगते हैं। एक उम्र के बाद आप अपने विश्वासों के प्रति बहुत कट्टर हो जाते हैं और यह कट्टरता आपको दूसरों से, सत्य से अलग करती है। अगर आप मानते हैं कि आप एक हिन्दू हैं या मुस्लिम हैं तो आप जीवन भर एक हिन्दू या मुस्लिम बनकर रह जाते हैं। तो 'विश्वास', कट्टरता, पूर्वधारणा, conditioning ये वो चीजें जो आपको सत्य को देखने पर पर्दा डाल देती हैं। 
देखिए, सत्य बँधा हुआ नहीं है। सत्य को हम तब देख पाते हैं जब हम विश्वासों या पूर्वाग्रहों से मुक्त होते हैं। पर हमारा मन इन सारी चीजों से बँधा हुआ है इसलिए वह सिर्फ सत्य के खंड को समझ पाता है पर सत्य तो सम्पूर्णता में है।
धर्म और समाज ने हमेशा हमें बांधा है। ये बोलते हैं आइए हम आपको सत्य तक ले जाते हैं, ये मेरा रास्ता है और यह आपको सत्य तक ले जाएगा फिर एक दूसरा समाज आता है और वो बोलते हैं ये देखिए मेरा रास्ता और यह पहले वाले से बेहतर है। यह आपको जल्दी सत्य तक ले जाएगा। इस तरह हमने बहुत सारे रास्ते बनाये और सत्य को बांटा। देखिए सत्य बँटा हुआ नहीं है और ना ही वह मेरा या तुम्हारा है। वह तो बस सत्य है।
तो हम कह रहे थे हम एक विशेष प्रकार से सोचने के आदी हैं और यह निर्भर करता है समाज में आपकी संस्कारबद्धता किस प्रकार हुई है। आप एक लड़का या लड़की के रूप में बड़े होते हैं, आप एक हिन्दू या मुस्लिम या जो भी के रूप में बड़े होते हैं, आप एक भारतीय, पाकिस्तानी या किसी अन्य देश के रूप में बड़े होते हैं, आप एक हिन्दू हैं तो ब्राह्मण, क्षत्रिय या अन्य के रूप में बड़े होते हैं। इस तरह हम किसी ना किसी रूप में बड़े होते हैं और यहीं संस्कारबद्धता है। और ये सभी चीजें सत्य को देखने से रोकती हैं, हम सबके के बीच विभाजन लाती हैं और हमारे द्वंद का कारण हैं। जब आप एक बार इन्हें देख लेते हैं तो आप इससे मुक्त हो जाते हैं और तब सत्य आपके दरवाजे तक होता है और तब आप बिना द्वंद के एक वैसा ही जीवन जैसा की यह है; जी पाते हैं।

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