'प्रेम' और 'निर्भरता'

प्रेम और निर्भरता दोनों एक दूसरे के पूरक शब्द हैं. जहाँ प्रेम हो वहां निर्भरता नहीं होती.अगर निर्भरता है तो वह प्रेम नहीं आसक्ति है. प्रेम स्वतंत्रता है. प्रेम मुक्ति है. हम सभी निर्भर हैं, दूसरों पर, ईश्वर पर या अपने विचारों पर. निर्भरता सुरक्षा का भाव देती है मनोवैज्ञानिक या शारीरिक. जबकि वहां कोई सुरक्षा नहीं होती वह महज सुरक्षा का भाव है, सुरक्षा नहीं. सुरक्षा है अपने रास्ते खुद बनाना, अपने निर्णय खुद लेना बिना किसी पर निर्भर हुए. जब तक हम दूसरों पर या ईश्वर पर निर्भर हैं, हम एक 'second human being' हैं, हममें कोई नयापन नहीं है.

निर्भरता हमें अपंग बनाती है. हमें स्वयं से दूर ले जाती है. प्रेम दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज है पर य़ह तब है जब 'आप' नहीं हैं. जहाँ 'आप' हैं वहां प्रेम नहीं है. प्रेम वह भाव है जहां मस्तिष्क खाली होता है, जहाँ आप कुछ नहीं होते हैं. जहाँ विचार की छाया मात्र भी नहीं है वहां प्रेम है. प्रेम के लिए किसी व्यक्ति या वस्तु का होना जरूरी नहीं, य़ह अपने आप आती है. प्रेम का संबंध 'विशेष' से नहीं 'सामान्य' से है. आप किसी से प्रेम करते हैं और वह इंसान चला जाता है, प्रेम तब भी है. प्रेम मृत्यु से पहले और उसके बाद भी है. प्रेम ने समस्त संसार को बनाया है और इसी से हम और आप चल रहे हैं. पर क्या कभी आपने इसे मेहसूस किया है;नहीं, कभी नहीं. क्योंकि आपने स्वयं को मेहसूस करने लायक बनाया ही नहीं. जैसा कि मैंने कहा आप एक 'second human being' हैं, आप संस्कारों और पूर्वाग्रहों कर ढांचा मात्र हैं. आप एक मशीन हैं जिसमें बचपन में जैसी आपकी प्रोग्रामिंग कर दी जाती है आप वैसे चलते हैं. आप कभी सवाल नहीं उठाते य़ह क्यों है कैसे है. आप डर चिंता निराशा हताशा स्वार्थ लालच लोभ ईच्छा संस्कारबद्धता आदि के पोटली मात्र हैं.इन सबसे बनते हैं 'आप' और इसी को आप जीना कहते हैं. इन सबके अलावा आप कुछ नहीं. इन्हीं सब का भार आप जीवन भर ढोते हैं और यहीं आपकी चेतना या आत्मा है. 

प्रेम तब है जब य़ह सब नहीं हैं. आपके पड़ोसी के पास एक कार आती है अब आपको भी एक कार चाहिए. आप बचपन में कुछ बनना चाहते थे, नहीं बन पाये,अब य़ह बोझ आप अपने बच्चे पर लाद देते हैं. आपने अपनी ल़डकियों को एक इंसान से ज्यादा इज्जत की पोटली बनाकर रखा है, आपके इज्जत की बोझ वो लेकर ढोती चलें. वे स्वयम को भूलकर माँ बाप के इज्जत की बोझ को लेकर ढोती चल रहीं हैं और इन सबमें उनका 'स्व' कहीं मर गया है. वो क्या चाहती हैं उन्हें क्या पसंद है वो किसे पसंद करती हैं या नहीं करती हैं इन सबका दायित्व उनके इज्जत के नाम पर आपने ले रखा है और इस तरह से आप खुद को संस्कारवान घर से ताल्लुक़ बताते हैं. क्या संस्कार किसी की स्वतंत्रता छीनना है,उन पर अपनी उम्मीदों का बोझ लादना है? आप शराब पीकर आते हैं और अपनी पत्नी को पीटते हैं और पीटकर बोलते हैं कि देखो घर की बात घर में रहनी चाहिए, बाहर नहीं जानी चाहिए; क्या य़ह संस्कार है? आप जब अपनी बेटी को घर से बाहर पढ़ने भेजते हैं तो उससे बोलते हैं देखो इज्जत पर आंच नहीं आने देना पर यहीं बात आप अपने बेटे को नहीं बोलते, शायद आप उससे बोलते हैं देखो कामयाब होकर लौटना. तो क्या इज्जत रखने की जिम्मेदारी सिर्फ ल़डकियों की है?और क्या अपने पसंद की जीवनसाथी ढूढ़ना इज्जत के खिलाफ जाना है? तो फिर आप अपने बच्चों से यह कहना बंद कीजिए कि आप उनसे प्रेम करते हैं, सच यह है कि आप उनसे प्रेम नहीं करते बल्कि आप खुद को उनमें देखते हैं और उनके द्वारा बस खुद की इच्छाओं को पूरा करना चाहते हैं और आप इसे प्रेम का नाम दे देते हैं. और इस बात को आप इतना रट देते हैं कि बच्चों के दिमाग में बचपन से conditioning आ जाती है और यह संस्कारबद्धता उनके जीवन भर चलती है, फिर वह भी अपने बच्चों के साथ ऐसा ही करते हैं और इन सबको आप एक 'संस्कारित परिवार' का नाम दे देते हैं, क्या ऐसा नहीं है?

तो क्या संस्कार दूसरों पर अपनी इच्छाएं थोपना है, दूसरों को डराकर रखना है, समाज में इज्जत बनी रहे इसलिए अपने बच्चों के सपनों और उम्मीदों का गला घोंटना है या अपने बच्चों को इतनी स्वतंत्रता देना कि कम से कम अपने जीवन के फैसले खुद ले सकें. ध्यान रहे आप बच्चों को ये नहीं बता सकते कि उन्हें क्या करना चाहिए या क्या नहीं तब आप खुद को उन पर थोप रहे होते हैं बल्कि उन्हें ऐसा बनाना है कि निर्णय लेने की क्षमता उनमें खुद विकसित हो. वो अपने जीवन के फैसले खुद लें चाहे सही या गलत और आपकी जिम्मेदारी है कि आप उनके फैसलों का सपोर्ट करें और उनका दोनों ही स्थितियों में साथ दें, तब आप सही मायनों में अपने बच्चों से प्रेम करते हैं और तब आप उन्हें योग्य और मज़बूत बना पाते हैं. 

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