स्यादवाद-जैन दर्शन(Theory of relativity of knowledge)


छ:अंधा लोग एक हाथी को देखने जाता है क्योंकि उ लोग अंधा है,देख तो सकता नहीं तो हाथ से स्पर्श करके बताना है कि हाथी कैसा होता है। तो एक जन आता है और हाथी के पेट को खूब देर तक स्पर्श करता है और बताता है कि अरे! तुम लोग जानता है, हाथी जो है दीवाल जैसा होता है। फिर दूसरे नेत्रहीन जन की बारी आती है। उ जाता है और हाथी के सूंड को छूता है और बोलता है भक्क! पहला वाला पगलैट है। हाथी जो है अजगर जैसा होता है। फिर तीसरा आता है और उ पूंछ को छूता है और हाथी को रस्सी जैसा बताता है।फिर अगला आता है और हाथी के पैर को छूता है और हाथी को खंभे जैसा बताता है।उसका अगला हाथी का कान छूता है और हाथी को पंखे जैसा बताता है और सबसे अंत वाला हाथी का मस्तक छूता है हाथी को छाती जैसा बताता है।सभी लोग लड़ने लगते हैं कि वो जो बोल रहे हैं वही सही है। मार-वार कर लेता है अंधा लोग।जबकि सच ये है कि कोई सही नहीं है, सभी केवल अलग अलग दृष्टिकोण से देखते हैं और अपने अलग अलग दृष्टिकोण को ही पूरा हाथी समझ लेते हैं।

हमारा दैनिक जीवन भी ऐसा ही है।हम किसी वस्तु के सिर्फ एक गुण को देखते हैं और उसे पूरा वस्तु समझने लगते हैं।एक वस्तु के अनंत धर्म हैं और हम उन अनंत धर्मों को जान भी नहीं सकते, हम केवल कुछ को ही जान पाते हैं और उसे ही संपूर्ण वस्तु समझ लेते हैं।संपूर्ण वस्तु को केवल 'केवल ज्ञान' से ही देखा जा सकता है और तीर्थंकर लोग या मुक्त पुरुष ही देख सकते हैं।

हम वस्तु के एक गुण के आधार पर उसे पूरा वस्तु समझ लेते हैं और हर व्यक्ति यही करता है और सभी सिर्फ अपने को ही सही समझते हैं,दूसरों को नकार देते हैं जबकि सच ये है कि 'सत्' को किसी ने नहीं देखा है और उन अंधे व्यक्तियों जैसे हम भी अंधे हैं। केवल मुक्त पुरुष ही संपूर्ण सच को देख पाते हैं;और एक ही वस्तु के अनंत गुण है जिसमें हम कुछ को ही जान पाते हैं। यही दार्शनिक विवादों का कारण है।अगर हम ये बोले कि हमारी बात भी सही हो सकती है और किसी और की भी। हर व्यक्ति का अपना पक्ष है और प्रत्येक पक्ष सही हो सकता है।

यही ज्ञान की 'सापेक्षता का सिद्धांत' है।इसलिए जैन लोग बोलते हैं कि किसी भी बात को बोलने से पहले उसके पहले 'स्यात्' (शायद) शब्द लगा देना चाहिए कि शायद मेरी बात सही है या शायद मेरी बात सही नहीं है,शायद आपकी बात सही है.......क्योंकि हम संपूर्ण 'बात' को जान ही नहीं सकते।हमारा ज्ञान आंशिक और अपूर्ण है।इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने मत से पहले 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए।

इसलिए जैन लोग परामर्श(judgement) को 7 भागों में विभक्त करते हैं-

(१)स्यात्-अस्ति (है)

(२) स्यात्-नास्ति (नहीं है)

(३) स्यात् अस्ति च नास्ति च (है और नहीं है)

(४) स्यात् अवक्तव्यम् (कहा नहीं जा सकता)

(५) स्यात् अस्ति च अवक्तव्यम् च (है किन्तु कहा नहीं जा सकता)

(६) स्यात् नास्ति च अवक्तव्यम् च (नहीं है और कहा नहीं जा सकता)

(७) स्यात् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यम् च (है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।)

इसे सप्तभंगी नय कहा जाता है।

शंकराचार्य ने इसकी आलोचना की है बोलते हैं कि ये क्या 'पागलों का प्रलाप' है जी! कोई वस्तु है भी,नहीं भी है,दोनों है,दोनों नहीं है,पता भी नहीं है;पहले तुम लोग आपस में डिसाइड कर लो कि 'कहना क्या चाहते हो'।

फिर भी बहुत से विद्वान ज़न ने जैन लोगों के इस मत की प्रशंसा की है और बोले हैं कि ई बहुत जरूरी है कि आदमी अपनी बात के साथ साथ दूसरों की बात का भी सम्मान दे ताकि लड़ाई झगड़ा से लोग दूर रहें।



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