Charvaka (चार्वाक)


दोस्तों, इस ब्लॉग में हम लोग चार्वाक दर्शन के बारे में जानेंगे। यह ज्ञात से ज्ञात की यात्रा है मतलब कि भूत से जो भी ज्ञान हमें मिला है हम उसी को नए शब्दों या थोड़ी आसान भाषा में समझेंगे, इसमें हम कुछ नया नहीं कर रहे हैं बल्कि पुराने को ही समझ रहे हैं। जो अभी तक के 3 ब्लॉग थे उसमें हमने नई खोज की थी कि एक दर्पण की भांति उसमें हम स्वयं को देखते थे कि असल में हम क्या हैं। तो ज्ञात से ज्ञात और ज्ञात से अज्ञात 2 तरह की यात्राएं हम ब्लॉग के माध्यम से करेंगे जबकि यह ब्लॉग ज्ञात से ज्ञात की यात्रा है। इसमें हम चार्वाक दर्शन को बहुत आसान भाषा में समझेंगे।

तो दोस्तों, चार्वाक का मतलब होता है (चरु+वाक्) जो मीठा वचन बोले। जब मैं आपसे कहूँगा कि पाप-पुण्य की चिंता मत कीजिए जाइए और कर्ज लेकर भी घी पीना हो तो पीजिये, खूब शराब का सेवन कीजिए, पीते पीते गिर जाइए और उठकर फिर से पीजिये।नर्तकियों के साथ खूब सारा समय बिताएं, जीवन एक ही है और इसे पूरे आनंद से जियें, पाप पुण्य, स्वर्ग नर्क जैसी कोई चीज नहीं जो है वो यही है, 'काम' को परम लक्ष्य बनाइये और 'अर्थ' को उसका साधन. तो जाहिर सी बात है ये सभी मीठे वचन हैं,कानों को प्रिय लगते हैं और ऐसा ही जीवन हम जीना भी चाहते हैं अगर बाहर से कोई भय या दबाव ना हो तो। 

चार्वाक भारतीय दर्शन में सबसे पुराना माना जाता है क्योंकि बाकी सभी दार्शनिक शाखाओं ने इसके बारे में अपने ग्रंथों में लिखा है (आलोचना किया है)। तो इसे जानने का कोई इसका अपना ग्रंथ नहीं है। विद्वान जन का मानना है कि इसके विरोधियों ने इसके ग्रंथों को जला दिया होगा तो दूसरे सम्प्रदायों ने इसके बारे मे जो अपने ग्रंथों मे लिखा है उसी के माध्यम से हम इसे जानते हैं। यह एक जड़वादी दर्शन है जो यह मानता है कि जड़ या matter ही परम तत्व है जिससे चेतना सहित पूरे संसार की उत्पत्ति हुई है। भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों में एकमात्र चार्वाक ही भूतवादी या जड़वादी दर्शन है। चार्वाक को 'लोकायत दर्शन' भी कह्ते हैं क्योंकि 'लोक' में बहुत प्रसिद्ध है। यह एक नास्तिक दर्शन है जो ईश्वर,वेद और परलोक में विश्वास नहीं करता। वेद और इसके निर्माताओं के लिए इसने अपशब्दों का प्रयोग किया है कि वो लोग भांड, धूर्त और निशाचर हैं। इसे 'नास्तिक शिरोमणि' की उपाधि दी गई है कि नास्तिकों में भी एक जो बड़ा लेवल का नास्तिक होता है न जो कुछ भी नहीं मानता, जिसको किसी चीज का भय नहीं वो है ये। यह एक सुखवादी दर्शन है जो सुख को ही परम साध्य मानता है और सुख में भी केवल इंद्रिय सुख को ही। इसके अनुसार इंद्रिय सुख ही परम सुख है और भी सुख होते हैं पर वो सब इससे छोटे हैं। जो सुख मदिरा पीकर लेटने में है वो अध्ययन में कहां या जो सुख किसी नृत्यांगना के आलिंगन में है वो पूजा-पाठ या गायन-अध्यापन में कहां, इसलिए इसे 'निकृष्ट सुखवादी दर्शन' की श्रेणी में रखा गया है।

तो चलिए दोस्तों एक बार चार्वाक के प्रमाण-विज्ञान की चर्चा कर लेते हैं। भारतीय दर्शन में प्रमाणों की चर्चा है। प्रमाण मतलब आपकी जानकारी का स्त्रोत। आप किसी पेड़ का ज्ञान कैसे प्राप्त करते हैं। भारतीय दर्शन में 3 शब्दों की चर्चा है प्रमा, प्रमाण और प्रमेय। प्रमा सही ज्ञान(valid knowledge) को कह्ते हैं। प्रमाण उस ज्ञान का स्त्रोत और प्रमेय जहाँ से वो ज्ञान आता है।अगर आपने किसी रस्सी को सांप समझ लिया तो तो ये प्रमा नहीं हैं क्योंकि आपने गलत ज्ञान प्राप्त किया है इसे अप्रमा बोलेंगे। भारतीय दर्शन में अधिकतम प्रमाणों की संख्या 6 है पर चार्वाक सिर्फ एक प्रमाण 'प्रत्यक्ष' को मानता है। प्रत्यक्ष मतलब जो आँखों के सामने हो आप किसी नदी का ज्ञान उसे देखकर ही करते हैं तो आपने यहां प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रयोग किया तो प्रत्यक्ष का शाब्दिक मतलब तो जो आँखों के सामने हो यहीं हुआ पर यह सिर्फ संकीर्ण अर्थ है। प्रत्यक्ष सिर्फ वो नहीं जो आँखों से ज्ञात हो,हम पंच ज्ञानेन्द्रियों से भी वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं तो ये भी प्रत्यक्ष के अंतर्गत ही हुए। तो प्रत्यक्ष जो पांचों ज्ञानेन्द्रियों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है। अन्य प्रमाण हैं अनुमान,शब्द, उपमान,अर्थापत्ति और अनुपलब्धि परंतु चार्वाक इन सबका खण्डन करता है उसके अनुसार सिर्फ एक प्रमाण 'प्रत्यक्ष' है और उसका तत्वमीमांसा और नीतिमीमांसा इसी पर आधारित है।

चार्वाक अनुमान का खंडन इस आधार पर करता है कि वहां व्याप्ति आधारित नहीं हो सकती। व्याप्ति आवश्यक और अनिवार्य संबंध है. हमने पहाड़ पर धुआं देखा और अनुमान प्रमाण के माध्यम से बताया कि वहां अवश्य ही आग होगी क्योंकि धुंआ और आग में व्याप्ति संबंध है, जहां जहां धुआं है वहां वहां आग है कोई भी ऐसी जगह नहीं हो सकती जहां धुआं हो और आग नहीं हो इसलिए जहां धुआं है वहां आग है। धुएँ और आग में व्याप्ति संबंध है और अनुमान का आधार व्याप्ति संबंध है अगर व्याप्ति संबंध में दोष है तो अनुमान दूषित हो जाएगा। चार्वाक ने ये कहा कि व्याप्ति संबंध दूषित है आप भविष्य में ये नहीं बता सकते कि भविष्य में भी जहाँ जहाँ धुंआ होगा वहां वहां आग होगा ही क्योंकि व्याप्ति खुद संशयग्रस्त है इसलिए अनुमान को नहीं माना जा सकता।

चार्वाक शब्द प्रमाण को भी नहीं मानता। भारतीय दर्शन में शब्द को भी प्रमाण माना गया है जैसे वेद शब्द प्रमाण है क्योंकि वेदों के शब्द अक्षरशः सत्य हैं अतः वेद स्वयं में ही प्रमाण है। किसी विश्वसनीय गुरु (आप्त पुरुष) का कथन भी शब्द प्रमाण में आएगा परंतु चार्वाक ना किसी गुरु को मानता है और ना ही वेदों को इसलिए वह शब्द प्रमाण का खण्डन करता है।

अतः चार्वाक अनुमान और शब्द का खण्डन करके सिर्फ एक प्रमाण प्रत्यक्ष को मानता है और इसी प्रत्यक्ष पर उसका तत्वविज्ञान और नीतिविज्ञान आधारित है।

तो चलिए दोस्तों अब थोड़ा चार्वाक का तत्वविज्ञान और नीतिविज्ञान पर भी बात कर लेते हैं। तत्व विज्ञान (Metaphysics) दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें हम संसार का निर्माण किन मूलभूत तत्वों से हुआ है, यह मूलभूत तत्व चेतन है या अचेतन, संसार का निर्माणकर्ता कौन है यह कोई ईश्वर है या कोई अन्य तत्व, आत्मा,परमात्मा,स्वर्ग,नर्क,लोक,परलोक पर चर्चा करते हैं। दर्शनशास्त्र में ऐसा कह्ते हैं जहाँ से विज्ञान की सीमा खत्म होती है वहां से तत्व विज्ञान शुरु होता है। (which is beyond physics that is metaphysics.)

तो चार्वाक सिर्फ प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है इसलिए उसकी तत्वमीमांसा सिर्फ इसी प्रमाण पर आधारित है। इ बोलता है कि हम सिर्फ उन्हीं चीजों को मानेंगे जो प्रत्यक्ष की सीमा के अंदर होगा। जो प्रत्यक्ष से परे होगा उसको हम 'मनबै नहीं करेंगे'। हम स्वर्ग को मनबै नहीं करेंगे क्योंकि हमने उसको नहीं देखा है. हम ईश्वर को भी मनबै नहीं करेंगे क्योंकि हमने उसको भी नहीं देखा है. हम आत्मा को भी मनबै नहीं करेंगे क्योंकि हमने उसको भी नहीं देखा है। हमने सिर्फ अपने देह को देखा है इसलिए हमारे लिए हमारी देह ही आत्मा है. यही उन लोग का 'देहात्मवाद' है कि हमारी देह ही हमारी आत्मा है। शरीर से विपरीत कोई आत्मा नहीं है। शरीर के मरने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है। और जब आत्मा ही नहीं रहेगी तो पुनर्जन्म कैसा, स्वर्ग कैसा, नर्क कैसा, परलोक कैसा। तो ये लोग परलोक को नहीं मानते हैं और ना ही पुनर्जन्म को, और ना ही कर्म सिद्धांत को,  जो है सिर्फ इसी बार है,फिर से धरती पर नहीं आना इसलिए आनंद से जीवन यापन कीजिए पाप पुण्य की चिंता मत कीजिए। 

इ लोग बताता है कि सिर्फ 4 तत्वों से सृष्टि का निर्माण हुआ है- पृथ्वी, अग्नि, जल और मरूत (वायु)। इ लोग 'आकाश' को नहीं मानता है फिर से उहे बोलता है कि 'देखबै नहीं किए हैं'। तो सिर्फ 4 तत्व सृष्टि के कारक हैं जिनसे समस्त चेतन और और अचेतन का निर्माण हुआ है और शरीर का निर्माण भी इन्हीं 4 तत्वों से हुआ हुआ है तो अब सवाल ये उठता है कि शरीर तो है चेतन और ई लोग बोल रहा है कि 4 भूत तत्वों से ही आत्मा भी बनी है तो अचेतन से चेतन का निर्माण कैसे हो सकता है?

तो ई लोग बोलता है कि भक्क! तुम लोग पगलैट हो। ई बताओ तुम लोग पान खाए हो, पान लाल रंग का तो नहीं होता पर खाने के बाद लाल रंग का निर्माण हो जाता है तो जिस प्रकार कत्था, कसैली और चूना जिनमें लाल रंग का अभाव होता है पर इन सबके मिलने से लाल रंग का निर्माण हो जाता है ठीक उसी प्रकार जब चारो भूत लोग जिनमें किसी में भी चेतना नहीं है, मिलता है तो अपने आप ही चेतना का निर्माण हो जाता है। तुम लोग गुड़ खाए होगे गुड़ में तो मादकता नहीं होती पर वही गुड़ जब सड़ जाता है तो मादक हो जाता है। तो चारों भूतों के मिल जाने से चेतना का निर्माण अपने आप ही जाता है। इसमें कोई उद्देश्य या प्रयोजन नहीं है यह सृष्टि का स्वभाव है। (स्वभाववाद)

तो चलिए दोस्तों अब इनकी नीतिमीमांसा भी देख लेते हैं। ई लोग कोई नीति-वीति नहीं मानता है, जरूरत ही नहीं है, पाप,  पुण्य,स्वर्ग, नर्क कुछ होता ही नहीं है और ना ही पुनर्जन्म ही होता है कि पापों के प्रायश्चित के लिए फिर से जन्म लेना है। आत्मा है ही नहीं, आत्मा चेतन शरीर के अतरिक्त और कुछ नहीं है,शरीर खत्म होने के बाद आत्मा भी खत्म,  यही जीवन अंतिम जीवन है। वेदों को ये मानते ही नहीं हैं तो पाप-पुण्य का सवाल ही नहीं उठता। क्योंकि कर्म सिद्धांत का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता इसलिए कर्म सिद्धांत भी नहीं है। वैदिक ऋषियों को ये धूर्त, भांड, पागल और निशाचर घोषित कर ही दिए हैं तो उनसे डरने का सवाल ही नहीं पैदा होता।

भारतीय दार्शनिकों ने जीवन के 4 लक्ष्य बताए हैं जिन्हें पुरुषार्थ कहा जाता है- धर्म अर्थ काम मोक्ष। चार्वाक इनमें से केवल 2 मानता है अर्थ और काम, जबकि परम लक्ष्य काम (भोग,विलास, सुख) ही है, अर्थ काम की प्राप्ति में सहायक है। धर्म और अधर्म मिथ्या है ये सब ब्राह्मणों ने अपने लाभ और लोगों को लूटने के लिए बनाया है। यही जीवन एकमात्र जीवन है और मृत्यु ही मोक्ष है।मृत्यु के बाद शरीर का पुनरागमन नहीं होता। जीवित मुक्ति जैसी कोई चीज नहीं, जब तक शरीर है तब तक दुःख है, और शरीर के रहते हुए ही सुख भी है तो सुख दुख साथ ही चलते हैं। मछली में काँटा है फिर भी लोग उसे खाते हैं, गुलाब में काँटा है फिर भी लोग उसे तोड़ते हैं। तो दुःख मिश्रित सुख में से ही सुख का चुनाव करना है जिसमें ज्यादा सुख है वही भोग्य है तो हमें हमेशा ज्यादा सुख की तलाश में रहना चाहिए। चार्वाक ने सुख में कोई गुणात्मक भेद नहीं माना है, मदिरा पान और बांसुरी वादन दोनों के सुखों में कोई भेद नहीं है दोनों बराबर हैं यह आप पर निर्भर करता है कि आपको ज्यादा आनंद किसमें आता है, जबकि मात्रात्मक रूप से दोनों बराबर हैं। पारलौकिक सुख जैसी कोई चीज नहीं, मानव को वर्तमान सुख पर ही ध्यान देना चाहिए। चार्वाक ने यहां तक कहा है-

            यावत् जीवेत् सुखम् जीवेत्।

            ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।

            भस्मिभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।

जब तक जियो सुख से जियो, उधार लेकर भी घी पियो, एक बार जलने के बाद शरीर का फिर से आगमन नहीं होता।

●यहां एक चीज ध्यान में रखनी चाहिए कि चार्वाक का उदय उत्तर वैदिक काल में हुआ जब उत्तर वैदिक काल के धर्म में बहुतायत दोषों का आगमन हो चुका था। यज्ञ में पशुओं और मनुष्यों की बलि दी जाने लगी थी,धर्म में कर्मकांडों का आगमन हो चुका था,यज्ञ सामान्य मनुष्य के पहुंच से बाहर हो गया था,जाति व्यवस्था चरम पर थी, स्त्रियों और दासों का शोषण होने लगा था, पुरोहित लोग अपने कर्मकांडों से समान्य जनमानस का शोषण करने लगे थे, उसके विद्रोह स्वरुप चार्वाक का उदय हुआ और इसी के विद्रोह स्वरुप बौद्ध और जैन धर्मों का भी उदय हुआ था।तो चार्वाक का पूरा दर्शन उस काल के विद्रोह स्वरुप पनपा था इसलिए उनमें ब्राह्मण और उस समय के वातावरण के प्रति इतनी विद्रोही भावना है जो उनके दर्शन में दिखती है। बहुत से लोगों का ये भी मानना है कि दूसरे सम्प्रदायों ने इनके अच्छे विचारों को खत्म कर दिया और उन्हीं चीजों को हमारे सामने प्रस्तुत किया जो नकारात्मक छवि देती हैं क्योंकि इनके मूल ग्रंथ अप्राप्त हैं। चार्वाक का भारतीय दर्शन मे महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि इनके विचार तार्किक हैं और बाद के सभी दार्शनिक सम्प्रदाय इनके विचारों को अपने दर्शन में शामिल करते हैं और उसका उत्तर देते हुए ही आगे बढ़ते हैं जिसने वाद-विवाद और तर्क की पद्धति को और मजबूत किया।

                                                  मिलते हैं अगले ब्लॉग में!


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