'जीवन'



'जीवन' क्या है? 

उड़ती हुई चिड़िया में जीवन है, एक पुष्प में जीवन है, एक नवजात शिशु में जीवन है, नाचते हुए मोर में जीवन है, वृक्ष के हिलते हुए पत्ते में जीवन है, जल में तैरती हुई मछली में जीवन है, एक वृक्ष के जड़ में जीवन है, एक कुत्ते में जीवन है।

हम सभी ने जीवन के बारे में अपनी अपनी परिभाषाएं बनायी है और हमारी परिभाषा 'जीवन' नहीं है। जिस जीवन ने हममें प्राण भरे हैं, उसे हम अपनी सीमित परिभाषाओं से तो नहीं ही जान सकते। जीवन ने हममें सांसे भरी हैं जो बिना रुके बिना थके चलती रहती हैं।

हमारी परिभाषाएं सीमित होती हैं, हमारे सोचने का दायरा सीमित है, हमारे कार्य सीमित होते हैं, हमारी चिंतन की पूरी प्रक्रिया सीमित है और इस सीमित से हम असीमित को नहीं देख सकते। सोचना शुरु होता है देखने से, जब हम देखते हैं तो वहां से विचार आते हैं, चाहे हम बाहर देख रहे हों या अपने भीतर। 'देखने' के तुरंत बाद विचार की प्रक्रिया शुरु हो जाती है पर जब हम किसी वस्तु को देखें और साथ में जैसे ही विचार आता है अगर उसे भी देख लें तो विचार खत्म हो जाता है और अगर हम बिना विचारों के चीजों को देखें तो हम असीमता में जीते हैं। हम अपने आसपास की हर चीज़ को देखते हैं पर उस देखने में एक समस्या है; हम चीजों को जैसे की तैसे नहीं देखते हैं बल्कि हम अपनी आंतरिक मनोवृत्ति को चीजों पर प्रक्षेपित कर देते हैं और इस प्रक्षेपण को 'देखना' कह्ते हैं, पर सच में हम नहीं देख रहे होते हैं। अगर हम किसी बिल्कुल नई चीज से मिलें जिसके बारे मे पहले से ना सुना है ना जाना है तो हम सच में उस वस्तु या चीज से मिल रहे होते हैं पर अगर आपने पहले से उसके बारे में कहीं से सुन या पढ़ लिया तो आप उसके बारे में एक छवि बनाते हैं और उन छवियों के सहारे उससे मिलते हैं, तो मस्तिष्क किसी चीज के बारे में हल्का से सुनते या पढ़ते ही उसके बारे में एक छवि बना लेता है और उन छवियों के माध्यम से हम चीजों से मिलते हैं, इसलिए हम कभी उस चीज़ को जान ही नहीं सकते क्योंकि असल में आप चीजों से मिल ही नहीं रहे हैं आप सिर्फ छवियों से मिल रहे होते हैं।

तो अगर हम सच में किसी चीज को जानना चाहते हैं, जीवन को समझना चाहते हैं तो जरूरी है कि उसके बारे में कोई छवि आपके मन में नहीं बैठी हो, हम छवि निर्माण की प्रक्रिया को खत्म करें। जब हम चीजों से मिलने लगते हैं और इस तरह से कि आप अंदर से पूरी तरह खाली हैं; जब आपका सारा 'अहंवादी प्रवृत्ति' समाप्त हो जाता है, आपके अन्दर कोई विचार, कोई छवि, कोई धारणा, कोई ईच्छा या कोई उम्मीद या कोई ऐसा कि 'काश वो ऐसा मिलता' नहीं हो तो सच मे हम यथार्थ से सामना करते हैं। फरेब में जीने से अच्छा है कि हम यथार्थ में जिएं, 'जो है' उसमें जिएं तब हम सच में चीजों या समस्याओं से मिल रहे होते हैं और वहां से कुछ नया शुरू होता है। अब सवाल ये है कि हम अन्दर से खाली कैसे हों; अपने अंदर के पूरे मैकेनिज्म को कैसे समझें कि कैसे हमारा विचार काम करता है, कैसे 'स्व' का निर्माण होता है, 'इच्छा' कैसे उपजती है, 'महत्वाकांक्षा' कैसे बढ़ती है आदि आदि।

 एक सीमित मस्तिष्क जो अपनी सीमित सोच द्वारा बँधा हुआ है, जो अपनी पूर्वाग्रहों में लिपटा हुआ है, जिसके केंद्र में सिर्फ 'मैं' आता है, जो मान्यताओं या परंपराओं द्वारा जकड़ा हुआ है; कभी भी असीमित तक नहीं पहुंच सकता क्योंकि ऐसा मस्तिष्क पूरी तरह संस्कारबद्ध (conditioned) है। जीवन असीमित है पर मृत्यु तक हम इस असीमता को देख ही नहीं पाते क्योंकि असीमित को देखने के लिए सीमित को खत्म करना होता है, पर सीमित इस तरह हम पर हावी है कि हम एक जाल में फंस चुके हैं। अगर आप एक वयस्क हैं और बेरोजगार नहीं हैं तो प्रतिदिन जॉब पर जाते हैं, काम करने में मन लगे या ना लगे फिर भी करते हैं क्योंकि ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना है, फिर थक हारकर घर आ जाते हैं, आपका बच्चा क्या कर रहा है, किन चीजों में उसका मन लग रहा है, घर में चीजें कैसे रखी हुई हैं, कैसे एक चिड़िया प्रतिदिन आपकी बालकनी में आकर आवाज लगाती है, कैसे फ़ूलों में विकास हो रहा है, कैसे आपकी पत्नी वो नहीं होती जब आपके ऑफिस जाते समय वह थी, कैसे सब कुछ प्रत्येक क्षण बदल रहा है; ये कुछ भी देखने का समय आपके पास नहीं है; आप खुद को ‘मार’ दिए होते हैं और अपने बच्चे को भी या अपनी आने वाली पीढ़ी को भी इसी मशीनरी प्रक्रिया में मारना चाहते हैं और इसी को 'जीवन' कह्ते हैं।

अगर आप एक विद्यार्थी हैं; आपके कुछ लक्ष्य होते हैं जैसे आईएएस बनना या प्रोफेसर बनना या कुछ और; फिर आप एक छवि रचते हैं कि कैसे आईएएस बनने के बाद आप अपनी पॉवर का इस्तेमाल करेंगे या प्रोफेसर बनकर खूब सारा पैसा इकठ्ठा करेंगे, कैसे अपने आसपास के लोगों के बीच खुद को 'बड़ा' दिखाएंगे, और कैसे एक चमक-दमक वाली दुनिया जिएंगे। वह छवि तो सत्य नहीं होती फिर भी उस छवि को लक्ष्य बनाते हैं, और उस छवि को जीते हैं, आप 10 साल एक झूठी छवि में बर्बाद करते हैं और दुर्भाग्य से वो बन गए जो बनना चाहते थे तो वही सब करेंगे जो लोग करते आए हैं 'स्वहित' को सबसे पहले रखेंगे, दूसरों को नीचा दिखाएंगे।....यह सीमित दृष्टिकोण आपका लक्ष्य बन जाता है, फिर आप 'जीवन' से कोशों दूर हो जाते हैं और इसी को 'जीवन' समझते हैं; आपका पूरा मस्तिष्क इसके गिरफ्त में आ चुका होता है, फिर एक दिन आप मर जाते हैं और ठीक यही चीज आप अपने बच्चों पर भी थोपना चाहते हैं। इस तरह यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है।

जीवन सीमितता में नहीं है, जीवन की खूबसूरती ही तब शुरू होती है जब आप 'egocentric attitudes' से छुटकारा पाते हैं। जब आपके कोई सपने नहीं हैं, कहीं 'पहुंचना' नहीं है, कुछ 'बनना' नहीं है, कोई ‘ईच्छा’ नहीं है कोई 'महत्वाकांक्षा' नहीं है, कुछ 'पाना' नहीं है, कुछ 'खोना' नहीं है, बस 'जो है' उसके साथ जीना है। अगर हम पूरा ध्यान 'जो है' उस पर लगाते हैं तो कुछ नया होगा। खूबसूरती वर्तमान में होती है भविष्य तो कल्पना मात्र है और भूत स्मृतियाँ; और कल्पना और स्मृतियाँ तो सच नहीं है तो ज्यादा बेहतर है कि सच के साथ जिया जाए, वहां से हम कुछ नया कर सकते हैं। हमारी प्रवृति हमेशा वर्तमान को छोड़ कर भविष्य में गोते लगाने की है और भविष्य पूरा कल्पना है। इस तरह हम एक जाल में फंस जाते हैं और ये जाल इतना गहरा होता है कि कभी इससे निकल नहीं पाते।

हमारा जीवन हताशा और निराशा से भर चुका है क्योंकि हमें जीवन को देखने की कला ही नहीं पता है। जीवन के प्रति हमारा रुख ही गलत सूचनाओं पर आधारित है और पूरा सोशल मीडिया उन गलत सूचनाओं को हमारे तक पहुंचाने में माहिर है; तो जब तक हम जीवन के प्रति सही रुख अख्तियार नहीं करेंगे,समस्याओं से ग्रसित रहेंगे जब तक हम सही तरीके से सोचने में माहिर नहीं होंगे दुखी रहेंगे,जब तक पूरी समग्रता में जीने की कोशिश नहीं करेंगे तब तक दुखी रहेंगे, जब 'मैं' को महत्व देंगे और केवल स्वयं के लिए ही जीने की कोशिश करेंगे दुखी रहेंगे; जब तक हम पर्यावरण से प्रेम करना नहीं सीखेंगे दुखी रहेंगे; जब तक अपने अंदर को पूरे मैकेनिज्म को नहीं समझेंगे दुखी रहेंगे, जब 'अहमभाव' खत्म होता है, जब 'मैं' से मुक्त होते हैं तब प्रेम का आगमन होता है वो धीरे से आकर आपके अंदर बैठ जाता है, जब तक 'I' है प्रेम आ ही नहीं सकता; प्रेम, दया और करुणा आते ही तब हैं जब आपका ‘मैं’ मर जाता है, हर उस चीज़ के प्रति जिससे आप जुड़े हैं; तब आप यह देख पाते हैं कि आप ही संसार हैं, आप खुद को पूरी दुनिया से जोड़ पाते हैं तब आपका प्रत्येक कर्म सिर्फ खुद के लिए नहीं रह जाता, तब आप अपने आसपास की हर एक चीज के प्रति सचेत होते हैं। किसी पेड़ को लगा जख्म भी आपको पीड़ा देता है, तब आप 'खुद' नहीं रह जाते बल्कि प्रकृति की हर एक वस्तु से जुड़ जाते हैं तब आपके अंदर प्रेम और करुणा के सिवाय और कुछ रह ही नहीं जाता। और ऐसा जीवन ही सच में जीना है तब आप पूरे शान से मरना चाहेंगे क्योंकि तब मृत्यु भी जीवन का हिस्सा बन जाती है और आप पूरा जीवन मरकर ही जिएं हैं क्योंकि आपने कुछ भी इकठ्ठा नहीं किया है, किसी चीज को अपने अंदर नहीं रखा है, किसी भी कल्पना या 'होना' में नहीं जिया है, समस्याओं से कभी भागे नहीं, किसी की कोई बात आपको दुःख नहीं पहुंचाती क्योंकि तब आप दुःख के साथ ही रहने लगते हैं, किसी का क्रोध या गुस्सा भी आपको छू नहीं पाता क्योंकि आपको सुनने की कला पता है ,आप हर एक चीज को सुनते हैं पर कोई बात आपके अंदर नहीं बैठती क्योंकि हर पिछली बात के प्रति आप मर जाते हैं। यह संसार जो दुखों, इच्छाओं, झूठों, दिखावों, प्रतिशोधों की कर्मस्थली है जहां इतने सारे साफ़ झूठ इतनी चालाकी से बोले जाते हैं,जहां प्रेम मर चुका है, जहां हिंसा उग्र रूप में है, जहां इंसान एक दूसरे के खून के प्यासे हैं, जहां हर आदमी दूसरे को सिर्फ 'साधन' बनाना चाहता है, जहां आप विवाह तो कर लेते हैं पर जिंदगी भर अपने पति या पत्नी से प्रेम नहीं कर पाते, जहां इच्छाओं और आकांक्षाओं का इतना बोझ है, जहां हर आदमी आपसे अपनी सिर्फ इच्छायें पूरी कराना चाहता है, जहां आपकी पूछ सिर्फ इसलिए होती है कि आप किसी का 'साधन' हैं, जहां आप अपने धर्म और जाति के नाम पर लड़ रहे हैं, जहां आप एक इंसान से पहले हिन्दू या मुसलमान हैं, जहां आप एक इंसान से पहले ब्राह्मण, क्षत्रिय, यादव या कोई और जाति हैं और आपने कसम खायी है कि आप अपने कुल या जाति को उच्चता के शिखर पर पहुंचा देंगे, जहां आप इसलिए खुश हैं कि मंदिर या मस्जिद बन रहा है, जहां आप इसलिए खुश हैं कि आपका राष्ट्र आगे बढ़ रहा है और आपका राष्ट्र बाकी राष्ट्रों से अलग है और उच्च है और आप विश्वगुरु थे, दुनिया को सीखने के लिए पहले आपके राष्ट्र आना होगा और ऐसी ही संकल्पना हर एक राष्ट्रों ने अपने प्रति बना रखी है, सबको लगता है कि वे उच्च हैं और बाकियों से अलग हैं और हर किसी ने स्वयं को दूसरों से अलग कर रखा है, सोशल मीडिया पर दूसरों पर आप मीम बनाते हैं और हँसते हैं कि देखो वो कितने पीछे और बदतर जिंदगी जी रहे हैं, यह आपकी खुशी का स्त्रोत है आपको मौका मिले तो आप दूसरों का नाश कर देंगे किसी दूसरे के महिलाओं और बच्चों के साथ गलत व्यवहार करेंगे और उनको अपनी खुशी का साधन बना देंगे, तो यहीं सब कुछ हम हैं और इसी को जीना कह्ते हैं। 

पेड़ों और जानवरों को खत्म करते जा रहे हैं क्योंकि पृथ्वी पर एकाधिकार तो सिर्फ इंसानों का है क्योंकि वो बोल नहीं सकते और अपने हक के लिए लड़ नहीं सकते इसलिए उनका हम समूल नाश कर देंगे पर अपने मामले मे हम अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं, आप सड़कों पर उतर आते हैं; पर उनका कोई अधिकार नहीं, जंगलों पर उनका अधिकार नहीं वो तो इंसानों के लिए होना चाहिए; हमें एक फैक्ट्री बनानी है और हम पूरा जंगल साफ़ कर देंगे और इसी को हम विकास कह्ते हैं। जो पेड़ हमें प्राणवायु ऑक्सीजन देते हैं उनको खत्म करने पर हम तुले हैं विकास के नाम पर; और यहीं हमारी ढाई हजार सालों की प्रगति है। 

जितने हिंसक हम होते जा रहे हैं सबसे पहले तो हमें खत्म होना चाहिए जानवर और पेड़ हमसे काफी अच्छे हैं, कम से कम वो हमारी तरह नहीं हैं, उनके अंदर ईर्ष्या, द्वेष और कपट नहीं है, वो हमारा रास्ता कभी नहीं रोकते तो विनाश हमारा होना चाहिए ना कि उनका और जैसे हम होते जा रहे हैं एक दिन प्रकृति हमें खत्म कर देगी। तो यह सब हम हैं और यहीं हमारा जीवन है।…टीवी पर राम मंदिर पर डिबेट चल रहा होगा और एक दूसरा टीवी भी होगा जिस पर मस्जिद पर डिबेट चल रहा होगा तो मंदिर और मस्जिद के लिए हम लड़ रहे हैं। अगर सच में भगवान है जो मुझे लगता है कि नहीं है पर अगर हम कुछ क्षण के लिए यह मान लें कि अगर वह है तो आज बहुत चिंता में होगा, कह रहा होगा...'अरे इंसानों! मैंने तुम्हें हिन्दू, मुसलमान या ईसाई बनाकर इस धरती पर नहीं भेजा है, मैंने तो सिर्फ इंसान बनाया था तुम लोग धरती पर आकर मंदिर, मस्जिद और चर्च बना लिए, एक दूसरे के बीच दीवार पैदा कर लिए और मंदिर, मस्जिद और चर्च में मुझे ढूढ़ रहे हो जहाँ पर मैं हूं ही नहीं, मंदिर, चर्च और मस्जिद तुमने बनाए हैं मैंने नहीं.... मैंने तो सुन्दर पहाड़, सुन्दर नदियां, सुन्दर झीलें, सुन्दर झरने, सुन्दर आसमान, सुन्दर धरती, सुन्दर घाटी, सुन्दर चिड़िया, सुन्दर पेड़, सुन्दर फूल, रंग बिरंगी तितली ये बनाकर दिए पर तुम्हारी नजर तो कभी इन पर गई ही नहीं, ऊपर से तुम आज इनके लिए काल बन गए हो; तुमने राष्ट्र बना लिए, तुमने जातियां बना ली, तुमने धर्म बना लिए और इन सबके लिए लड़ रहे हो।'





 





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