'मृत्यु'


   तो चलिए दोस्तों आज मृत्यु पर बात करते हैं। मृत्यु हमेशा से ही हमारे लिए एक रहस्यमय घटना रही है। हजारों सालों से हम इस पर बात करते आए हैं। एक दूसरी कक्षा के बच्चे में भी यह सवाल उठने लगता है कि मरने के बाद हम लोग कहाँ जाएंगे जब उसके माता-पिता या अध्यापक उसे बताते हैं कि हम सभी एक दिन मर जायेंगे।मृत्यु अपने साथ डर भी लाती है कि जो भी हमारे खास लोग हैं इनको छोड़कर हम एक दिन चले जायेंगे। तो मृत्यु और डर साथ साथ चलते हैं कि उन सबसे जिनसे हम बंधे हुए हुए हैं अपने परिवार से या अपने आप से, अपने किसी विश्वास से जो हमें सुरक्षा देता है ये सब एक दिन छुट जाएंगे और हम इनके छूटने से डरते हैं।

मृत्यु एक रहस्यमय घटना इसलिए रही है कि हम हमेशा मृत्यु के पार जाना चाहते हैं,मौत के उस पार क्या है हम उसे देखना चाहते हैं कि मरने के बाद हम कहाँ जाते हैं और क्या सच में स्वर्ग नर्क जैसी चीजें हमारा इन्तेज़ार कर रहीं हैं? धर्मग्रंथों और धर्मगुरुओं ने ऐसा कहा है शायद इसलिए कि पाप-पुण्य को परिभाषित कर सकें कि इस जन्म में अच्छा कर्म करेंगे तो स्वर्ग में अच्छा फल मिलेगा या बुरा कर्म करेंगे तो बुरा मिलेगा।....तो इस तरह हमने एक विभाजन पैदा किया है मृत्यु के इस पार और उस पार में और हमेशा से हमारी उत्सुकता इस पार को छोड़ उस पार में रही है। इसका कारण ये है कि हम हमेशा 'जो है' उससे पलायन करके 'जो होना चाहिए' उसमें चले जाते हैं और वर्तमान को छोड़ भूत और भविष्य के चक्कर काटते रहे हैं क्योंकि वर्तमान डरावना होता है और भूत एवं भविष्य मनोवैज्ञानिक सुरक्षा देते हैं। उस सुरक्षा का कोई अस्तित्व नहीं है फिर भी हम उसमें जीते हैं और कुछ नया होने की उम्मीद रखते हैं जबकि नया तो सिर्फ वर्तमान में है, 'जो है' उसमें है, भूत और भविष्य तो सिर्फ कल्पना है 'आकाशकुसुम' जैसी।

तो ज्यादा जरूरी सवाल ये नहीं है कि मृत्यु के उस पार क्या है जरूरी सवाल ये है कि मृत्यु के इस पार क्या है और इस जीवन को हम कितना सुन्दर बना पाते हैं क्योंकि उस पार जैसी कोई चीज नहीं है और अगर है भी तो उसका रास्ता भी इसी पार से होकर जाता है।

तो अब सवाल ये है कि हम मरने से क्यों डरते हैं। ये वृक्ष, ये कीट, ये गौरैया सभी एक दिन मर जायेंगे। जो भी चीजें हम इस धरती पर देखते हैं सभी एक दिन खत्म हो जाएंगे और कुछ नया सृजन होगा।तो विनाश और सृजन इस प्रकृति का हिस्सा है। प्रकृति ऐसे ही काम करती है। हजारों सालों से विनाश और निर्माण की प्रक्रिया चल रही है और प्रत्येक क्षण परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है चाहें हम इस पर ध्यान दें या नहीं पर प्रकृति अपना काम करती है। प्रकृति को इससे फर्क़ नहीं पड़ता कि आप उस पर ध्यान देते हैं या नहीं या आप उसके बारे में क्य़ा सोचते हैं या कोई उसके बारे में क्या सोचता है वो अपने गति से चलती रहती है। जैसे एक फूल को फर्क़ नहीं पड़ता कि लोग उसके बारे में क्य़ा सोचते हैं, सुगंध फैलाना उसका काम है। नदी का लगातार बहते रहना उसका काम है। चिडियों का चहचहाना उनका काम है भले आप उन पर गुस्सा करें या प्रेम प्रकट करें उनको आपके सोचने और आपके व्यवहार से फर्क नहीं पड़ता। पर हमें फर्क पड़ता है लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं या क्या टिप्पणी करते हैं इससे फर्क पड़ता है। तो एक शाश्वत जीवन जीने के लिए जरूरी है कि हम फूल, नदी या चिड़िया बन जाएं क्योंकि हम शाश्वत में जीने के काबिल हैं हज़ारों सालों से हम संकीर्ण जीवन जी रहे हैं और दूसरों पर निर्भर हैं. अपने किसी भी निर्णय के लिए हम दूसरों के पास जाते हैं। कोई आपके बारे में आपसे ज्यादा नहीं जानता।... तो क्या हम पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो सकते हैं क्योंकि निर्भरता हमें अपंग बना देती है और अपंग जीवन जीना 'जीने' का अपमान है। जैसे ही आप किसी के पास जाते हैं और कहते हैं इस स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए कृपया आप हमारा मार्गदर्शन करें हमें कुछ समझ नहीं रहा, त्यों ही आप पूरी तरह से खुद को उसके सामने समर्पित कर देते हैं और सामने वाला आपके समर्पण का जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है क्योंकि हम खुद समस्याओं का सामना नहीं करना चाहते इसलिए किसी से मदद की गुहार लगाते हैं और किसी से मदद की गुहार लगाना समस्याओं से पलायन है । अगर आपके घर मे आग लगी है और आप किसी बाहरी से मदद की गुहार लगाते हैं ये बात समझ आती है, पर जैसे ही आप बोलते हैं मुझे A और B में से क्या चुनना चाहिए त्यों ही आप आत्मसमर्पण कर देते हैं आपको क्या चयन करना है ये सिर्फ आप ही जानते हैं दूसरा अपने विचारों को आप पर थोपना चाहेगा या अपने हिसाब से चीजों को बताएगा और आप वैसा कभी नहीं बन पाएंगे क्योंकि आप 'वो' नहीं हैं। हजारों वर्षों से हम ऐसे ही शोषित हुए हैं।....तो क्या मनुष्य पूरी तरह से अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है जो सम्भव है और जिसके लिए जरूरी है कि वह किसी समस्या से भागे नहीं बल्कि ज्यों का त्यों उसका सामना करें उस समस्या के साथ ही रहे।

तो हम बात कर रहे थे हम मरने से क्यों डरते हैं ? मरना क्या है मैं आपसे पूछता हूं क्या होता है जब हम मरते हैं?.... जब हम मरते हैं तो  हर चीज जिससे हम जुड़े हैं वो 'जुड़ाव' खत्म हो जाता है। तो मैं आपसे पूछता हूं आप किन किन चीजों से जुड़े हैं?...सबसे पहले तो आप अपने परिवार से जुड़े हैं आप कोई भी आप इसलिए करते हैं ताकि परिवार की जो जरूरतें हैं वो पूरी हो सकें तो सबसे पहले तो आप अपने परिवार से जुड़े हैं, फिर दोस्तों की बारी आती है फिर आपके अन्य लोग जहाँ आप काम करते हैं या आसपास के लोग जिनसे आप मिलते हैं। तो हम इन सबसे जुड़े हुए हैं। इसके अलावा भी आप कुछ चीजों से जुड़े हुए हैं मैं आपसे कहता हूं, सोचिए इसके अलावा आप किन चीजों से जुड़े हैं?........क्य़ा आप अपने विश्वास से नहीं जुड़े हैं? क्या आप अपने विश्वासों से जकड़े हुए नहीं हैं? या आप अपनी मान्यताओं से जकड़े हुए नहीं हैं? जिन परंपराओं, पद्धतियों और संस्कारों में हम बड़े हुए हैं क्या हम पूरी तरह से उनमें बंधे हुए नहीं हैं और क्या हम इन्हें खोने से नहीं डरते? कोई पसंदीदा चीज जिसे बचपन से आपने सम्भाल कर रखी है,क्या आप उसे खोने से नहीं डरते और मृत्यु आएगी और एक दिन आपको उससे दूर कर देगी।                                                                                        मैं आपसे पूछता हूं आप क्या हैं?.....ध्यान से सोचिए आप क्या हैं.....जिसको आप 'आत्मा' बोलते हैं वो क्या है?.....ध्यान से देखिए किसी दूसरे के हिसाब से नहीं किसी किताब या किसी शिक्षक के हिसाब से नहीं खुद से देखिए कि आप क्या हैं, किसी सिद्धांत को यहां मत लाइये खुद से निरीक्षण कीजिए कि आप क्या हैं? आप कुछ स्मृतियों कुछ विचारों या जो भी आपकी मानसिक स्थिति है आप जो भी सोचते है या जो भी आपके 'सपने' हैं या जो भी आपका 'बनना' है तो इन मानसिक विश्वासों के अलावा आप कुछ नहीं हैं अगर आपका 'content of consciousness' खत्म कर दिया जाए तो आप क्या हैं. ...अगर हमारे विश्वास,पूर्वाग्रह आशायें, इच्छायें, आकांक्षाएं ये जो भी आपकी मन:स्थिति है अगर इसको खत्म कर दिया जाए तो आप क्या हैं फिर आप कुछ भी नहीं है।आपका 'content of consciousness' ही आपकी 'आत्मा' है जिसको आप आत्मा कहते हैं। तो जब हम मरते हैं तो हमारा 'content of consciousness' खत्म हो जाता है तो जिन चीजों से हम जुड़े हुए होते हैं मानसिक या बाहरी वो सब कुछ खत्म हो जाता है और इसी को हम मरना कहते हैं तो हम जीते जी भी मर सकते हैं, मरना जीवन से अलग कोई प्रक्रिया नहीं है, जीना और मरना एक ही बात है तो कोई मृत्यु के साथ भी जी सकता है। अगर वो 'attached' नहीं है या उसकी कोई 'इच्छा' नहीं है या कोई 'आकांक्षा' नहीं है या वो 'becoming' की प्रक्रिया में नहीं है तो मरते हुए जीना है। ('Living with death')तो ऐसे आदमी के लिए मृत्यु कोई अलग प्रक्रिया नहीं है बल्कि वो तो हर पल मरते हुए ही जी रहा है। जो एक नदी के जैसा है जो हर पल बह रहा है और जिसने कुछ भी इकठ्ठा करके नहीं रखा है। तो क्या हम ऐसा जीवन जी सकते हैं ऐसा जीवन जो संपूर्ण हो जो टुकड़ों में बँटा हुआ नहीं हो क्योंकि हम टुकड़ों में जीने के आदी हैं। तो क्या हम एक ऐसा जीवन जी सकते हैं जो भय रहित हो क्योंकि जन्म से मृत्यु तक हम भय के साथ जीते रहते हैं। आप सच में जीवन को तब देख पाते हैं जब आप मुक्त हो पाते हैं 'पुरातन' से पुरानी परंपराओं, प्रथाओं, विश्वासों और रूढ़ियों से। नया तभी शुरू होता है जब पुराना खत्म हो जाता है तो नए को देखने के लिए पुराने को खत्म करना होता है और जीवन हर पल नया है।  एक परंपराओं, प्रथाओं और मान्यताओं में जकड़ा हुआ मस्तिष्क कभी भी नए को नहीं देख सकता।

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