'प्रेम'
सरिता ने सागर से पूछा प्रेम क्या है?सागर कुछ नहीं बोला।अगले दिन सरिता फिर से बोली बताओ न सागर! मुझे प्रेम समझ नहीं आता।लोग बोलते हैं मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं, तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूंगा फिर इतने सारे वायदे करके भी एक समय बाद अलग क्यों हो जाते हैं?सागर उस दिन भी कुछ नहीं बोला।अगले दिन सरिता गुस्सा होकर बोली अब तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा। तुम दो दिन से चुप्पी साधकर बैठे हो जबकि तुम्हें पता है।अगर आज नहीं बोले तो कभी बात नहीं करुँगी।क्योंकि सागर सरिता से प्यार करता था, मजबूरन उसे बोलना पड़ा:
जो चीज़ शब्दों से परे है उसे मैं शब्दों में कैसे बता सकता हूं। भाषा का निर्माण हमने एक दूसरे को समझने के लिए किया है, जितना हम सोच पाते हैं, जो हमारी मूल भावनायें होती हैं उसे पूरी तरह व्यक्त नहीं कर पाते क्योंकि शब्द सीमित हैं।हम जितना सोचते और महसूस करते हैं उसके बहुत कम भाग को बता पाते हैं और दूसरे तक पहुंचते पहुंचते वह और भी कम हो जाता है।शब्द हमेशा से ही सीमित हैं क्योंकि हमारे प्रत्येक विचार के लिए शब्द ढूढ़ पाना मुश्किल है क्योंकि विचार की प्रक्रिया बहुत तेज होती है। और हमारे सोचने का दायरा भी सीमित है।हम टुकड़ों में बंटे हुए इंसान हैं, हमारी सोच भी टुकड़ों में है।आज मैं क्या खाऊँगा, मुझे उस पार्टी में जाने के लिए क्या पहनना चाहिए, मुझे वो बनना है, उसे मेरे बारे में ऐसा नहीं बोलना था, जरूर एक दिन मैं आईएएस अपने पिता का नाम रोशन करूंगा,यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, यह तुम्हारा है, मेरा धर्म, मेरी जाति, मेरा राष्ट्र,मेरा मेरा मेरा...............ये सब वो टुकड़े हैं जिनसे हम बने हैं। यहीं हमारा 'आत्म' है और इसी को मरने नहीं देना चाहते...
एक टुकड़ों में सोचने वाला मस्तिष्क कभी भी संपूर्ण को नहीं समझ सकता और प्रेम संपूर्ण है, प्रेम असीमित है और सीमित मस्तिष्क उस तक नहीं पहुंच सकता।प्रेम शुरू ही तब होता है जब आपका 'मैं' और 'मेरा' खत्म हो जाता है, जब तक 'मैं' है प्रेम नहीं है। 'प्रेम' और 'मैं' आग और पानी के जैसे हैं दोनों एक साथ नहीं रह सकते।अगर आपने किसी को बोला मैं तुमसे प्रेम करता हूं मतलब कि आप प्रेम नहीं करते; जो शब्दों से परे है उसे शब्दों में नहीं मापा जा सकता। य़ह आपकी इच्छा या महत्वाकांक्षा है किसी चीज को पा लेने की जिसे आप प्रेम का नाम दे देते हैं और साथ रहते रहते एक दूसरे के आदी हो जाते हैं फिर वहां से नफरत शुरू हो जाती है क्योंकि आप उसके आदी हो चुके हैं, क्योंकि अब आपने उसे पा लिया है, जब तक वो नहीं था आपके लिए वो हीरा था जैसे ही मिल गया लोहा हो गया, अब आपकी महत्वाकांक्षा खत्म हो गई है अब किसी और चीज़ को पाना है, एक नई महत्वाकांक्षा जन्म ले रही है,और य़ह प्रक्रिया मरने तक चलेगी। य़ह एक पूरा जाल है जिसमें हम फंसे हुए हैं।
हम अकेले जीने से डरते हैं। हमें एक साथी की जरूरत होती है जिसे हम प्रेम दोस्ती या कुछ और नाम दे देते हैं।पर नाम वह वस्तु नहीं है।और एक समय बाद हम उससे ऊब जाते हैं अब हमें कुछ और चाहिए होता है और य़ह 'चाह' कभी खत्म नहीं होती है, मरते दम तक यह प्रक्रिया चलती रहती है और हमें कुछ न कुछ चाहिए होता है ताकि हम जुड़े रहें ताकिअकेले ना हो जाएं।कई बार जब हम अकेले होते हैं मस्तिष्क एकदम शांत हो जाता है और य़ह प्रज्ञा की अवस्था होती है पर अचानक आपको लगता है अरे ये सब क्या हो रहा है मैं इतना खाली महसूस क्यूं कर रहा हूं आपको लगता है आपमे कुछ दिक्कत आ गई है और हम परेशान हो जाते हैं फिर हमारा जुड़ना शुरु हो जाता है और किसी चीज से जुड़ जाते हैं और जीवन भर अलग अलग चीजों से जुड़े रहते हैं किसी नौकरी से, किसी धार्मिक समूह से, या किसी संगठन से क्योंकि मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होने से डरता है। उसे मार्गदर्शन करने के लिए हमेशा कोई न कोई चाहिए। इस तरह हम शोषित हो रहे हैं और खुद को ही मार रहे हैं और 'यहीं हमारा जीना है'।
'प्रेम' असीमित है और सीमित उस तक कभी नहीं पहुँच सकता है।सीमित अगर अपनी सीमितता को खत्म कर ले तब प्रेम के दरवाजे तक पहुंच सकता है पर सीमित इतना उलझा हुआ है कि उसे पता ही नहीं है कि वह सीमित है। कई बार जब उसे लगता है कि उसे शांति नहीं मिल पा रही उसका जीवन ठीक से नहीं चल पा रहा तो वह किसी गुरु,संगठन से जुड़ जाता है,वहां और सीमित हो जाता है।और य़ह सीमित मष्तिष्क प्रेम की बातें करता है।प्रेम की बातें करना प्रेम नहीं है।प्रेम उदित तब होता है जब हम सम्पूर्णता में जीने लगते हैं, जहाँ मेरा और तुम्हारा नहीं होता, जहाँ कुछ बनने या पाने की इच्छाएं नहीं होती हैं, जहाँ मन हमेशा कुछ बनने के सपने नहीं देखता, जहाँ मष्तिष्क पूरी तरह स्पष्टता में जीता है, जहाँ उसे अपने अन्दर झाँकना आता है।जब आप कुछ भी नहीं होते, ना कोई विचार ना कोई स्मृति ना कुछ 'बनना' तब प्रेम उदित होता है।जब मैं मर जाता है तब प्रेम होता है।जब आप कुछ भी नहीं होते तो सिर्फ प्रेम होते हैं और य़ह प्रेम किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष से नहीं बल्कि सब कुछ से होता है।आप प्रत्येक चीज से प्रेम करने लग जाते हैं और य़ह स्वत: होता है, आपको इंसान से भी प्यार है, जानवरों से भी प्यार है,पौधों से भी प्यार है, पक्षियों से भी प्यार है, फूलों से भी प्यार है, सूरज से प्यार है, चंद्रमा से प्यार है, तारों से प्यार है, पहाड़ों से प्यार है, नदियों से प्यार है, झीलों से प्यार है, झरनों से प्यार है; प्रत्येक वस्तु जो आपके आसपास है सब के प्रति आपके अंदर करुणा होती है और य़ह करुणा अपने आप आती है इसके लिए आपको प्रयास नहीं करना पड़ता।
सागर ने अपनी बातें खत्म की।
(सरिता नहीं जानती कि सागर उससे प्यार करता है क्योंकि सागर ने कभी उससे कहा नहीं पर वो सागर के बिना रह नहीं पाती...)
Blog ko jis terah se aapne conclude kiya brackets me vo accha aur manmohak laga.
जवाब देंहटाएं