'दुःख'
अनादिकाल से हम मनुष्य दुःख की समस्या से जूझते आए हैं। किसी प्रियजन को खोने का दुःख, अभीष्ट परीक्षा में फेल होने का दुःख, किसी की कोई बात बुरी लगने का दुःख, 'लोग क्या कहेंगे' इसका दुःख, अपना मनपसंद काम ना कर पाने का दुःख, बीमारी का दुःख, किसी वस्तु या व्यक्ति की चाह और वो ना मिल पाए इसका दुःख, प्रेमिका या प्रेमी से बिछुड़ने का दुःख, किसी काम में असफलता का दुःख, 'एक दिन मर जायेंगे' इसका दुःख, इच्छाओं का पूरा ना हो पाना इसका दुःख। बुद्ध ने कहा है, 'इस संसार में दुखियों ने जीतने आँसू बहाये हैं वो एक सागर के जल से भी ज्यादा है।' ये एक वाक्य दुःख की विभीषिका को दर्शाने के लिए काफी है।भारतीय दर्शन की पूरी परम्परा दुःख और उसके निवारण पर कार्य करती है। भारत में दर्शन का प्रयोग ही दुःख और दुखों से मुक्ति के लिए किया गया है जिसके लिए 'मोक्ष' शब्द का प्रयोग किया गया है। मुक्ति मतलब दुखों से मुक्ति अर्थात जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति क्योंकि अगर पृथ्वी पर जन्म लिए हैं तो दुःख तो होगा ही क्योंकि धरती दुखों से भरी पड़ी है तो अगर इस जन्म मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं तो दुखों से भी मुक्त हो जायेंगे क्योंकि दुःख तो इस चक्र में ही है। कई जगह 'जीवन मुक्ति' शब्द का प्रयोग भी किया गया है जिसका मतलब है दुखों से मुक्ति जरूरी नहीं मृत्यु के बाद ही प्राप्त हो, हम जीवित रहते हुए भी मुक्त हो सकते हैं। इसके लिए सभी दर्शनों की अपनी अलग अलग मान्यताएं हैं जैसे गीता में 'निष्काम कर्म' का जिक्र है।
बहरहाल, ये तो हुई दर्शन की बात और भारतीय दर्शन सबसे पुराना है। तब से अब तक सैकड़ों बार हमने दुखों से मुक्ति की चर्चा की है पर अभी तक सफल नहीं हुए क्योंकि 6th century BC से जब बुद्ध दुःख निदान की चर्चा करते हैं और अब तक 'दुखों' में थोड़ी भी कमी नहीं आयी क्योंकि हमने उनके शब्दों को रट तो लिया है पर सच में दुःख को समझा नहीं है और ना ही इसकी गहराई में जाकर इसे देख पाए हैं। हम आज भी युद्धों से गुजर रहे हैं। एक दूसरे को राष्ट्र के नाम पर, जाति के नाम पर, कुल के नाम पर या धर्म के नाम पर मारने को तैयार बैठे हैं। अपनी श्रेष्ठता का पैमाना लेकर घूमते हैं और जब भी मौका मिलते दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, आप अपने पड़ोसी को नीचा दिखा रहे हैं या पड़ोसी राष्ट्र को दोनों एक ही बात है। This is what 'us'. और ये एक सत्य है, चीजें ऐसे ही चल रहीं हैं, ये कोई theory या परिभाषा नहीं है। ये एक तथ्य है मतलब चीजें जैसी हैं वैसी हैं। हमने एक दूसरे को बांट रखा है राष्ट्र के नाम पर, धर्म के नाम पर या जाति के नाम पर। हमने 'division' पैदा किया है ना सिर्फ दूसरों में बल्कि खुद में भी की हम अच्छे या बुरे हैं, हम ईमानदार या बेईमान हैं...तो हम विभक्त हैं बाहर से भी और अंदर से भी कि हम हिन्दू या मुस्लिम हैं, हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी हैं, ब्राह्मण या राजपूत हैं या वैश्य या शूद्र हैं या फिर हम अच्छे हैं या बुरे हैं तो ये विभाजन है और जहां भी विभाजन है वहाँ द्वंद है, युद्ध है। हिन्दुओं या मुसलमानों के बीच या ब्राह्मणों या शूद्रों के बीच या अमेरिका या रूस के बीच,'मेरे' और संसार के बीच कि 'मैं' और 'संसार' अलग अलग हैं, मेरे और दुःखों के बीच कि 'मैं' और 'दुःख' अलग अलग हैं जबकि तथ्य ये है कि हम ही दुःख हैं, दुःख हमसे अलग कोई सत्ता नहीं है। हम ही दुःख हैं। हमारे विचारों ने दुःखों को बनाया है। विचार ने भय का निर्माण किया है और हम सदियों से इस दुःख से भागते आए हैं बजाय उसमें गोते लगाने के। तो जहाँ विभाजन है वहां द्वंद है और जहाँ द्वंद्व है वहां युद्ध है।
तो चलिए फिर से हम चलते हैं उस पुरानी दुनिया में जहाँ हम दुःख के बारे में बात कर रहे कि क्या कारण है कि हज़ारों वर्षों के बाद भी दुःख हमारे साथ वैसे ही बना हुआ है जैसे वह पहले था। मैं अपने दादाजी से बहुत प्रेम करता हूं और अचानक उनकी मृत्यु हो जाती है और मैं गहरे सदमे में चला जाता हूं। ये दुःख है। मैंने कोई X exam दिया जो मेरे जीविका के लिए बहुत जरूरी था, मैंने पूरी मेहनत की उस exam को निकालने के लिए फिर भी वो नहीं निकला और मैं फिर से गहरे सदमें में चला जाता हूँ। यह भी दुःख है। या मैं किसी लड़की से बहुत प्रेम करता हूं, मैं उसे पाने की पूरी कोशिश करता हूँ फिर भी वो नहीं मिलती है, ये भी दुःख है। हमने यहां 3 problems को लिया है और तीनों को बारी बारी से समझते हैं कि दुःख क्यों है या मैं तनाव में क्यों जी रहा हूँ।
मैं अपने दादाजी से बहुत प्रेम करता हूं और अचानक उनकी मृत्यु हो जाती है, मैं गहरे सदमें में चला जाता हूं। मैं जानता हूं कि हर चीज जो इस धरती पर है एक दिन खत्म हो जाएगी, ये फूल ये पेड़ ये पर्वत सब कुछ। मैं इस तथ्य से भलीभांति परिचित हूं कि दादाजी भी एकदिन चले जायेंगे फिर भी मैं दुखी हूं क्योंकि मैं दादाजी से बहुत प्रेम करता हूं और मैं नहीं चाहता वो मुझसे दूर हों क्योंकि मैं दादाजी से बहुत 'attached' हूँ क्योंकि मैं उनसे बहुत attached हूँ इसलिए मैं नहीं चाहता कि वो मुझे छोड़कर जाएं जबकि सत्य ये है कि हर चीज एक दिन खत्म होती है, मैं यह भलीभांति जानता हूं पर फिर भी मैं इससे मैं भागता हूं क्योंकि इसमें 'भय' है और हम बचपन से भय से भागने में संस्कार बद्ध हैं। जब भय आता है हम भागने की राह देखते हैं इसलिए 'fear' हमारा पीछा करता है। इस सत्य को जानते हुए भी कि हर चीज एक दिन खत्म हो जाती है हम उन्हें जाने नहीं देना चाहते क्योंकि हम सत्य से हमेशा भागते हैं और हमेशा कम्फर्ट जोन ढूंढ़ते आए हैं और यहां भी हम वहीं कर रहे कि काश हम इस 'होनी' को रोक पाते।हमारा अटैचमेंट हमें उन्हें नहीं छोड़ना चाहता जबकि अटैचमेंट प्रेम नहीं है यह तो स्वार्थ है अगर हम इस सत्य को देख लेते हैं तो दुःख खत्म हो जाता है या दुःख के साथ बने रहते हैं बिना उससे पलायन किए 'जो है ' बस उसे देखते रहते हैं बिना कोई imagination किए या ख्याली पुलाव पकाए, अगर तथ्यों के साथ बने रहते हैं तो दुःख खत्म हो जाता है और तब हमारे अंदर कुछ नया सृजन हो रहा होता है और हम आंतरिक तौर पर बहुत मज़बूत हो रहे होते हैं फिर दादाजी क्या किसी की भी मृत्यु का भय हमें डरा नहीं सकता और जब हम भय रहित हो पाते हैं तब सच में हम 'प्रेम' कर पाते हैं जहाँ भय और लगाव है वहां प्रेम कैसे आ सकता है क्योंकि प्रेम एक पवित्र चीज है, इसका संबंध विचारो से नहीं है, यह उत्पन ही तब होता है जब विचार की कोई प्रक्रिया नहीं हो रही होती है जहाँ सिर्फ 'देखना' होता है, चीजों को जैसे है वैसे देखना, न सिर्फ बाहरी चीजों को ब्लकि अपनी आंतरिक गतिविधियों को भी कि कैसे हम भयग्रस्त हैं या फिर हम कितने attached हैं, हर चीज जिससे जुड़ते हैं उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, फिर एक जाल में फंस जाते हैं और पूरा जीवन ऐसे ही चलता रहता है या हम 'single directive' हैं अगर हम एक आईएएस हैं तो पूरा जीवन फाइलों के बीच ही गुजार देते हैं, अगर हम एक इंजीनियर हैं तो पूरा जीवन घर बनाने या सॉफ्टवेयर बनाने में ही निकाल देते हैं तो क्या जीवन सिर्फ ही दिशा में है या क्या ईश्वर ने हमें सिर्फ आईएएस या इंजीनियर बनने के लिए ही यह शरीर दिया है?..... तो 'देखना' एक आग की तरह काम करता है जो हमारी समस्याओं को जलाकर राख कर देता है,जबकि भय और लगाव का संबंध विचारों से है, विचारों ने इन्हें जन्म दिया हैं जबकि प्रेम तभी उत्पन होता है जब भय और लगाव का विनाश हो जाता है।
अब हम दूसरी समस्या पर आते हैं मैंने पूरी मेहनत से X परीक्षा दिया और फिर भी उस परीक्षा में मैं फेल हो जाता हूँ जबकि वो परीक्षा मेरे जीविका के लिए बहुत जरूरी है। मेरा परिवार, मेरे भाई-बहन की उम्मीद होती है वो परीक्षा पर मैं फेल हो जाता हूँ। और अब मैं डिप्रेशन में हूँ कि इन उम्मीदों का अब क्या होगा। यह हमारी समस्या है।अब इसे देखते हैं पूरे senses से इसका Observation करते हैं। समस्या को 'as it is' देखते हैं.........क्य़ा सच में एक परीक्षा हमारे पूरे जीवन को तय करती है?क्या हमारे पास सिर्फ एक ही विकल्प है या एक इंसान के रूप में हम इतने कमजोर हो चुके हैं पूरे जीवन को जो इतनी विविधताओं से भरा हुआ है उसे सिर्फ एक दृष्टि से देखते हैं? क्या जीवन 'single directive' है? क्या ऐसा नहीं है कि हम अपनी imaginations को ही सच मान लेते हैं और उसी के अनुरूप पूरे जीवन की कल्पना कर लेते हैं? क्या ऐसा नहीं है कि हमारी thinking process बहुत limited होती है? क्या ऐसा नहीं है कि हम जीवन को सम्पूर्णता से नहीं देखते बल्कि एक सीमित नजरिए से देखते हैं? और क्या हमारा सीमित दृष्टिकोण ही पूरा जीवन है? क्या सिर्फ एक exam जिसमें आप फेल होते हैं आपके पूरे जीवन को निर्धारित कर सकता है? क्या ऐसा नहीं है कि आप अपने परिवार या भाई- बहनों के लिए उससे ज्यादा कर सकते हैं जितनी आपने उस परीक्षा से उम्मीद की थी? क्या ऐसा नहीं है कि बहुत सारी असफ़लता हमें नए उद्देश्यों की ओर ले जाती है? क्या हमने डॉ कलाम जैसे लोगों के बारे में नहीं जाना है? तो क्या हम इस विविधताओं से भरे जीवन को सीमित नजरिए से देखना बंद कर सकते हैं? क्या आप पूरी इंद्रियों से समस्याओं को देख सकते हैं? क्या हम भय रहित जीवन जी सकते हैं जिसमें किसी परीक्षा का परिणाम हमारा जीवन निर्धारित ना करे बल्कि उस काम में हम सच में आनंद का अनुभव करते हैं इसलिए उसे करते हैं, परिणाम चाहे जो हो तो क्या हम एक परिणाम रहित जीवन जी सकते हैं? क्या हम जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जी सकते हैं?....तो जब हम सवाल करते हैं तो हमे उत्तर मिलने लगते हैं तो जरूरी है कि हम सवाल करें खुद से और जीवन को सिर्फ एक पक्ष में नहीं जीते हुए उसकी विविधता में जिएं।
अब हम तीसरी समस्या पर आते हैं कि मैं किसी से बहुत प्रेम करता हूं। मैंने उसे पाने की बहुत कोशिश की फिर भी वह मुझसे दूर चला गया या चली गई। मैं तनाव में हूँ अब मैं क्या करूं?....तो सबसे पहले हम 'प्रेम' को समझते हैं कि प्रेम है क्या? क्या जितनी आसानी से हम इस शब्द का प्रयोग कर देते हैं ये शब्द इतना आसान है?अगर सच में हम किसी से प्रेम करते हैं तो वो मिल ही जाए इसकी उम्मीद बिल्कुल नहीं करेंगे क्योंकि 'वो मिल जाए' ये 'इच्छा' है और इच्छा प्रेम नहीं है। तो हमने इस खूबसूरत शब्द को दूषित बना दिया है।प्रेम दुनिया की सबसे खूबसूरत चीज है हम पेड़ों से प्रेम कर सकते हैं, हम नदियों से प्रेम कर सकते हैं हम पक्षियों की चहचहाहट से प्रेम कर सकते हैं, हम खुले आसमान से प्रेम कर सकते हैं और इस प्रेम में 'मिलने' या 'पाने' जैसी कोई चीज नहीं होती। यह एक विचार विहीन वाली अवस्था होती है जहाँ आप देखते हैं और बस देखते रह जाते हैं। पर लोगों में हमने शर्त बांध दिया कि मुझे 'चाहिए' और 'चाहिए' प्रेम नहीं है। असल में जहाँ प्रेम है वहाँ कुछ भी नहीं है, वहाँ आप खुद भी नहीं रह पाते...वहाँ रहता तो सिर्फ 'प्रेम' है और असल में प्रेम 'प्रेम' शब्द नहीं है हमने शब्दों को यथार्थ वस्तु समझ रखा है शब्द वह वस्तु नहीं है, 'आम' जो शब्द है वो असल में आम नहीं है तो शब्द वह वस्तु नहीं। शब्द संचार का माध्यम है पर सच में चीजों को उनके असल रूप में समझना है तो शब्दों से दूर आना होगा तब हम सच में 'भय', 'दुःख', 'इच्छा' और 'लगाव' को समझ सकते हैं।
तो इस ब्लॉग में इतना ही। मिलते हैं अगले ब्लॉग में!
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