प्रथम आर्य सत्य- दुःख

वह कहानी तो हम सबने सुनी ही होगी जिसमें सिद्धार्थ एक वृद्ध और एक मृत व्यक्ति को देखकर दुःख की विभीषिका तक पहुंचते हैं। क्योंकि सिद्धार्थ राजमहल के सुखों में दुःख को कभी महसूस नहीं कर पाए थे। पहली बार जब घर से बाहर निकले तो देखा कि संसार तो दुखों से भरा पड़ा है।हम अभी तक भ्रम में जी रहे थे।

बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्यों की बात हुई है जिसमें पहला आर्य सत्य 'दुःख' है।दुःख एक सत्य है और इससे भागकर हम इसके निवारण तक नहीं पहुंच सकते। यह अस्तित्व में है और लगभग प्रत्येक दिन ही अपनी छवि हमें दिखा देता है। दुःख और भय साथ साथ चलते हैं।भय दुःख का कारण है। 'क्या होगा अगर अमुक चीज़ हमें नहीं मिल पाएगी' य़ह भय है और अमुक चीज हमें नहीं मिल पाती है तो हम दुखी हो जाते हैं,अगर मिल जाए तो भी हम दुखी रहते हैं कि जो मिला है वो कहीं खो ना जाए।

भय से मुक्ति ही दुःख निरोध का मार्ग प्रशस्त करती है।

बुद्ध ने कहा है संसार में दुखियों ने जितने आँसू बहाये हैं वह एक सागर के जल से भी ज्यादा है। य़ह वाक्य दुःख की विभीषिका को दर्शाता है।

दुखों के अनगिनत प्रकार हैं-

किसी प्रिय के खो जाने का दुःख, परिजन की मृत्यु का दुःख, अभीष्ट वस्तु ना मिल पाने का दुःख, सफल ना हो पाने का दुःख, जो चाहा वो ना मिल पाए इसका दुःख, अपनी बात ना मनवा पाने का दुःख, नौकरी छूटने का दुःख, पत्नी या प्रेमिका से विरह का दुःख, किसी परीक्षा में सफल ना हो पाने का दुःख, बीमारी का दुःख, एक दिन मर जायेंगे इसका दुःख, चोट लगने का दुःख, गरीबी का दुःख, अगर अमीर हैं तो ये अमीरी एक दिन खत्म ना हो जाए इसका दुःख, ईश्वर से कुछ मांगा और वो पूरा ना हो पाया इसका दुःख, मेरा भविष्य कैसा होगा मेरे बच्चे क्या करेंगे य़ह सोचकर इसका दुःख, महत्वाकांक्षा पूरा ना हो पाने का दुःख, समाज में उचित प्रतिष्ठा ना बना पाने का दुःख...............आदि अनंत प्रकार हैं।

इस तरह हमारा पूरा जीवन दुखों से भरा पड़ा है और य़ह एक तथ्य है।हम चाहकर भी इससे अलग नहीं हो सकते क्योंकि य़ह एक तथ्य है। हम चाहे इससे भागकर हिमालय चले जायें या किसी क्लब तब भी य़ह हमारे साथ रहता है।य़ह हमारे जीवन का हिस्सा है।हम चाहे इससे भागने का तमाम उपाय कर लें तब भी य़ह हमारे साथ रहता है। 

इसलिए बुद्ध ने पहला आर्य सत्य 'दुःख' रखा है ताकि हम इसे स्वीकारें बजाय पलायन के। इसका अस्तित्व है। जिस चीज से हम डरते हैं उससे पलायन कर जाते हैं।पर वह तब भी आपके साथ रहता है क्योंकि 'आकाशकुसुम' की तरह वह असत् नहीं है। जो चीज 'है' उससे हम पलायन नहीं कर सकते।

दुःख से मुक्ति का पहला सोपान इसकी 'स्वीकार्यता' है। क्योंकि प्रत्येक दिन इससे हमारा सामना होता है।

तो 'तथ्यों के साथ जीना'। 'जो है' उसके साथ जीना है ना कि उससे भाग जाना। दुःख और भय साथ साथ चलते हैं इसके साथ जीना। 'स्वीकार्यता' ही मुक्ति का मार्ग है। जब हम इसे स्वीकार कर लेते हैं कि दुःख और भय का अस्तित्व है और वे साथ साथ चलते हैं। य़ह स्वीकार्यता ही इससे परे जाने का मार्ग है।

इसलिए बुद्ध प्रथम आर्य सत्य में 'दुःख' को रखते हैं। जब हम यह स्वीकार कर लेते हैं कि दुःख है तो इससे विलग होने का मार्ग अपने आप मिल जाता है। फिर द्वितीय आर्य सत्य की बारी आती है जो दुःख के कारणों के बारे में बतलाता है(प्रतीत्यसमुत्पाद)। फिर तृतीय आर्य सत्य 'निर्वाण' आता है जो दुख निरोध है और अंत में चतुर्थ आर्य सत्य 'अष्‍टांगिक मार्ग' आता है जो दुख से मुक्ति के 8 मार्गों को बताता है।

बुद्ध ने लोक,परलोक,आत्मा,परमात्मा,पुनर्जन्म के बारे में कोई बात नहीं किया। ये लगभग 10 प्रश्न हैं जो 'अव्यक्तानि' नाम से जाने जाते हैं, जिनका उत्तर बुद्ध से पूछने पर वे मौन धारण कर लेते थे।उनका मानना था कि अगर किसी व्यक्ति को तीर लगा है तो तीर निकालकर उसकी सेवा करना हमारा धर्म है ना कि इन व्यर्थ के प्रश्नों में पड़ना कि तीर किसने मारा, कहाँ से आया। तीर 'दुःख' है और इससे मुक्ति पर चर्चा होनी चाहिए।

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