जैन दर्शन (बंधन और मोक्ष)




भारतीय दर्शन की सामान्य विशेषता है कि यहां का प्रत्येक दार्शनिक दुःख और दुःखों से मुक्ति का उपाय बताता है चार्वाक को छोड़कर।आत्मा जन्म और मरण के चक्र में फंसी रहती है यहीं बंधन है और जब इस चक्र से उसे मुक्ति मिल जाती है तो यहीं मोक्ष है।

जैन के अनुसार आत्मा में चार पूर्णताए होती हैं,अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य और अनंत आनंद।बंधन की अवस्था में ये पूर्णताए ढक जाती हैं जैसे बादल सूर्य को ढक लेता है।आत्मा अज्ञान के कारण बंधन में जाती है;लोभ, क्रोध, मान और माया ये चार वासनाएं हैं,इन्हें कषाय भी कहते हैं जो आत्मा को अपनी ओर आकर्षित करती हैं और इन वासनाओं के दुष्प्रभाव में जीव शरीर के लिए लालायित रहता है।वह पुद्गल कणों को अपनी ओर आकर्षित करता है, भूत (matter) को ही पुद्गल कण कहा जाता है जिनसे शरीर का निर्माण होता है।जीव वासनाओं के प्रभाव में पुद्गल कणों को आकर्षित करता है और ये पुद्गल कण उसे बंधन की तरफ ले जाते हैं।जीव किस प्रकार के पुद्गल कणों को आकर्षित करेगा यह उसके पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर तय होता है। आकृष्ट पुद्गल कणों को कर्म पुद्गल कहते हैं।

जीव,अजीव,आश्रव,बन्ध,सँवर,निर्जरा,मोक्ष; ये सात शब्द जैन दर्शन मे बहुत महत्वपूर्ण हैं, इनके सहारे हम उनके पूरे दर्शन को समझ सकते हैं। सबसे पहले हम इन शब्दों को समझेंगे। जीव की बात हमने पहले ही कर ली है। जैन दर्शन द्रव्यों को दो भागों में बांटता है:अस्तिकाय और अनस्तिकाय;अस्तिकाय जिनमें विस्तार होता है,अनस्तिकाय जिनमें विस्तार नहीं होता है।अस्तिकाय में दो तत्व आते हैं जीव और अजीव,अनस्तिकाय में एक तत्व सिर्फ 'काल' आता है।अजीव पुनः 4 भागों में बंट जाता है: धर्म,अधर्म, पुद्गल,आकाश ।

                                   द्रव्य 

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   अस्तिकाय                                      अनस्तिकाय

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  जीव     अजीव                                      काल 

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                ●धर्म 

                ●अधर्म 

                ●पुद्गल

                ●आकाश 

धर्म और अधर्म:

जैन ने धर्म और अधर्म की व्याख्या साधारण व्याख्या से अलग तरह की है।वस्तुओं को चलायमान रखने के लिए जिस सहायक द्रव्य की आवश्यकता होती है उसे धर्म कहते हैं जैसे मछली को जल में तैरने के लिए जल सहायक भूमिका अदा करता है इसलिए मछली के लिए जल धर्म है। अधर्म धर्म का विपरीत है, वस्तुओं को स्थिर रखने में जो सहायक द्रव्य होता है उसे अधर्म कहते हैं जैसे वृक्ष की छाया पथिक को आराम देती है इसलिए वृक्ष की छाया अधर्म है।

पुद्गल:

भूत(matter) को पुद्गल कहते हैं।भौतिक द्रव्य जिनका संयोजन और विभाजन हो सके वह पुद्गल है।पुद्गल अणु या स्कन्धों के रूप में पाए जाते हैं।अणु किसी पदार्थ का सबसे छोटा रूप है जिसका और विभाजन नहीं हो सकता जबकि दो या दो से अधिक अणुओं का संयोग स्कन्ध कहलाता है।पुद्गल स्पर्श,रूप,रस और गन्ध जैसे गुणों से युक्त हैं, शब्द उनका गुण नहीं है।

आकाश:

आकाश वह है जो अस्तिकाय द्रव्यों जीव,धर्म, अधर्म और पुद्गल को स्थान देता है।आकाश अदृश्य है उसका ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है। विस्तारयुक्त द्रव्यों को रहने के लिए स्थान चाहिए य़ह कार्य आकाश ही करता है।

काल:

काल को अनस्तिकाय द्रव्य की श्रेणी में रखा गया है क्योंकि काल स्थान नहीं घेरता। कच्चे फल को पकने के लिए समय चाहिए, एक बच्चे को बड़े होने के लिए समय चाहिए, हमारा दैनिक जीवन समय पर ही निर्भर है;इसकी व्याख्या काल द्वारा ही सम्भव है।

अब हम आश्रव,बन्ध,सँवर,निर्जरा,मोक्ष को समझेंगे।

पुद्गल कणों का आत्मा की ओर प्रवाह 'आश्रव' कहलाता है।जैसा कि हम जानते हैं पुद्गल कण भौतिक पदार्थ हैं जिनसे शरीर का निर्माण होता है।जीव अज्ञान की अवस्था में कषायों(चार वासनाएं) की तरफ आकर्षित होता है। हम जानते हैं कि 4 वासनाओं (क्रोध,लोभ,मान,माया) के दुष्प्रभाव में जीव शरीर के लिए लालायित रहता है ताकि शरीर के माध्यम से वह वासनाओं को भोग सके। इसके लिए पुद्गल कणों को अपनी तरफ आकर्षित करता है, पुद्गल कणों का जीव की ओर प्रवाह ही आश्रव कहलाता है।जब पुद्गल कणों का जीव में प्रवेश हो जाता है तो य़ह अवस्था 'बन्ध' कहलाती है।इस तरह पुद्गल कणों का जीव में प्रविष्ट हो जाना ही बंधन है।बंधन 2 प्रकार का होता है: भाव बंध, द्रव्य बंध। मन में दूषित विचारों का आना ही भाव बंध है और जब जीव और पुद्गल का संयोग हो जाता है तो य़ह द्रव्य बँध है।जैसे दुध और पानी का संयोजन होता है वैसे ही जीव और पुद्गल का संयोग होता है और जीव बंधनग्रस्त हो जाता है।

अब हम मोक्ष पर विचार करेंगे। मोक्ष के लिए जरूरी है कि जो जीव और पुद्गल का संयोग है वह टूटे। इसके लिए जरूरी है कि जो नए पुद्गल के कण हैं जो आत्मा की तरफ बह रहे हैं पहले उन्हें रोका जाए और उसके बाद जो आत्मा में घर बना चुके हैं उन्हें भी खत्म किया जाए। नए पुद्गल कणों को जीव की तरफ प्रवाहित होने से रोकना संवर कहलाता है और जो पहले से घर बना चुके हैं,उन्हें खत्म करना निर्जरा कहलाता है। जो आ रहे हैं पहले उन्हें रोका जाए और उसके बाद जो बाकी बचे हैं उनका भी विनाश कर दिया जाए यही सँवर और निर्जरा है,इसके बाद आत्मा मुक्त हो जाती है। अब क्योंकि आत्मा अज्ञान के कारण ही चार प्रकार की कुप्रवृत्तियों को अपनी तरफ आकर्षित करती है इसलिए पहले उसका अज्ञान दूर किया जाए। इसके लिए जैन धर्म मे त्रिमार्ग दिए गए हैं: सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चरित्र। इन्हें त्रिरत्न कहते हैं।

सम्यक ज्ञान मतलब जीव और अजीव के भेद का ज्ञान, सम्यक दर्शन मतलब तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा रखना और सम्यक चरित्र मतलब उचित चरित्र का पालन करना। 5 समितियां, 3 गुप्ति,10 धर्मों का पालन, और पंच महाव्रत (सत्य,अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य) का पालन करना अनिवार्य है।इनके पालन से मनुष्य का अज्ञान दूर होता है और वह मोक्ष को प्राप्त करता है।







                                                    




       







                                 





                          

                           

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