जैन दर्शन (आत्मा)


आपके शरीर में एक साथ दो या उससे ज्यादा भी आत्माएं निवास कर सकती हैं, आत्मा जड़ वस्तु की तरह नहीं है जो स्थान घेरती है, और एक जड़ वस्तु की जगह दूसरा नहीं रखा जा सकता। जिस प्रकार दो या दो से ज्यादा दीपक एक ही कमरे को प्रकाशित कर सकते हैं उसी प्रकार एक से अधिक आत्मा भी एक ही शरीर में निवास कर सकती है।आत्मा अपना आकर परिवर्तित कर सकते है और शरीर के अनुसार आकार बदलती है इसलिए एक चींटी की आत्मा छोटी और हाथी की बड़ी होती है। आत्मा ज्ञाता,कर्ता और भोक्ता है अर्थात्‌ बाहरी चीजों का ज्ञान प्राप्त करती है, अपने क्रियाओं को करने में स्वतन्त्र है और जैसा कर्म करती है वैसे फल का भोग करती है।चेतना आत्मा का स्वरुप लक्षण है अर्थात्‌ आत्मा अपने साथ चेतना लेकर ही आती है ऐसा नहीं है कि शरीर मिलने के बाद उसमें चेतना का निर्माण होता है जैसा कि न्याय दर्शन मानता है।आत्मा नित्य और शाश्वत है, आत्मा का ना ही निर्माण और ना ही विनाश होता है; य़ह शरीर परिवर्तित करती है। आत्मा और जीव पर्यायवाची हैं और जैन लोग आत्मा के लिए 'जीव' शब्द का प्रयोग करते हैं।आत्मा में चार पूर्णताए हैं- अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत वीर्य और अनंत आनंद (Infinite knowledge,Infinite faith,Infinite power,Infinite bliss)। बंधन की अवस्था में ये पूर्णताए ढक दी जाती हैं जैसे मेघ सूर्य के प्रकाश को ढक देता है।

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