'मैं कौन हूँ'?


               तो चलिए हम खुद के बारे में जानते हैं,हम कौन हैं? हमने लोगों के बारे में जाना, हम अपने आसपास के चीजों को जानने की इच्छा रखते हैं पर हम खुद को नहीं जानते। आप कहेंगे-अरे!मैं जानता तो हूं खुद को,मैं विक्की हूं। पर क्या आप सिर्फ एक नाम हैं?आपका नाम मोहन भी हो सकता था तो क्या आप मोहन हो जाते?तो क्य़ा आप सिर्फ एक नाम हैं?

        बचपन से हमें एक नाम दे दिया जाता है साथ में हमारे माता या पिता का नाम भी या हमारे जो भी भाई बहन हैं और इन सबके साथ हमारा संबंध हमारी पहचान बन जाता है। तो क्या हम सिर्फ संबंध भर हैं?

       'स्वयं' को देखना एक मजेदार खेल है। पर ये स्वयं है क्या? हम कौन हैं? अगर हमारी स्मृति हटा दी जाए तो हम कौन हैं? क्या हम स्मृति भर नहीं हैं? उन यादों का पुलिंदा जो बचपन से अब तक हमने इकठ्ठा किया या फिर कोई विश्वास या अपने बारे में कोई छवि या फिर दूसरों के बारे में कि हम बहुत अच्छा या बहुत खराब दिखते हैं या आप बहुत अच्छा गाते हैं या आप एक अच्छे या बुरे इंसान हैं। तो हम छवियों,  विश्वासों या यादों के अलावा और क्या हैं? क्या यहीं सारी चीजें हमारे स्वयं को नहीं बनाती? जिसे कई जगहों पर आत्मा कहा गया है क्या वह हमारे चेतना की विषय-वस्तु नहीं है?....हमारे अनवरत विचारों का प्रवाह कैसे एक विचार दूसरे का पीछा करते हैं कैसे हम किसी वस्तु को देखते हैं और विचार सक्रिय हो जाता है, उसके बारे मे अवधारणाएं बनाने लगता है...क्या यही सारी चीजें हमारे 'स्वयं' को नहीं बनाती?

     क्या हम जानते हैं कि हम एक 'second hand' इंसान हैं? हम वहीं हैं जो हमें बनाया गया है parents के द्वारा, family के द्वारा,  teachers के द्वारा, neighbours के द्वारा, books के द्वारा, religion के द्वारा और हमारे society के द्वारा। इन सबने मिलकर हमे बनाया है और इसलिए हम एक 'द्वितीयक इंसान' हैं। क्या यहीं हमारा 'आत्म' नहीं है कि गीता ने क्या कहा है या कुरान ने क्या कहा है या हमारे धर्मगुरु ने क्या कहा है, क्या ये सारी चीजें हमारे सोचने के ढंग को प्रभावित नहीं करतीं?

    क्या हम खुद को देख सकते हैं स्वयं के ही दर्पण में कि हम कितने लोभी, ईर्ष्यालु, मक्कार हैं। जब हम अपने दोस्त से बात कर रहे होते हैं कई बार कितना गलत सलाह देते हैं या जब उसको कोई सफलता हाथ लगती है हमें जलन होने लगता है। वो अलग बात है Facebook पर हम best friend का कैप्शन लगाते हैं पर सच में हम कितने दोगले हैं। हमारा जीवन झूठ, मक्कारी और 'सर्वप्रथम मैं' पर ही चलता है। क्या हम इन सबको देख सकते हैं? क्या हम खुद से खुद का परिचय करा सकते हैं कि कैसे कभी कभी दया भाव के साथ हम एक 'अहम-केन्द्रित' इंसान हैं जिसके लिए सबसे पहले 'मैं और मेरा' जरूरी होता है और किसी परोपकार में भी स्वार्थ छुपा होता है। मेरी पत्नी स्वस्थ रहे ताकि मेरे बीमार पड़ने पर मेरी सहायता कर सके या मेरा दोस्त खूब आगे बढ़े ताकि जरूरत पड़ने पर मैं उसकी सहायता ले सकूँ। हमारे हर रिश्ते इस 'मैं' की पूर्ति के लिए हैं। हम किसी से प्रेम करते हैं ताकि हम उससे कुछ पा सकें और जब वो चीज मिलनी बंद हो जाती हमारा प्रेम खत्म हो जाता...क्य़ा हम इन सबको देख सकते हैं जिनसे हम बने हैं।

     देखना एक खूबसूरत कला है। किसी पेड़ को देखना उसकी टहनियों पर दौड़ती हुई गिलहरी को देखना, चिड़ियों को देखना, बादल को देखना, नीले आसमान को देखना, हरे भरे मैदानों को देखना और इस देखने में अगर हम सच में देख रहे हैं तो 'मैं' विलुप्त हो जाता है,वहाँ सिर्फ देखना होता है, देखने वाला खत्म हो जाता है और यहीं कुछ क्षण हम 'मैं' से मुक्त होते हैं और यहीं पर आनंद होता है फिर जैसे ही विचार जन्म लेता है ये खूबसूरती यहीं भंग हो जाती है। तो देखना मतलब सिर्फ देखना जहां देखने वाला खत्म हो जाए, जहां देखने का विषय वस्तु भी खत्म हो जाए वहाँ सिर्फ देखना हो ना कि देखने का वर्णन। 'देखने के वर्णन' देखना नहीं है जैसे ही 'वर्णन' आता है 'देखना' खत्म जाता है। पहाड़ का वर्णन 'पहाड़' नहीं है या किसी पेड़ का वर्णन 'पेड़' नहीं है। वर्णन वह वस्तु नहीं होती पर हम सिर्फ 'वर्णन' को जानते हैं वस्तु को नहीं क्योंकि बचपन से अब तक हमें ऐसा ही बताया गया है।

   तो यह ब्लॉग लिखने का मकसद यह था कि बहुत जरूरी है कि हम खुद को जानें कि असल में हम हैं क्या क्योंकि मानव समस्याओं से छुटकारा पाना है तो हमें खुद को जानना ही होगा और यह हमे कोई और नहीं बतायेगा। ये एक ऐसी कहानी है जिसे लिखने वाले हम खुद हैं तो हम अपने अंदर ही इसे पढ़ सकते हैं और जब हम इसे पढ़ना जान जाते हैं तो यह एक बहुत ही रोचक खेल बन जाता है।

                       मिलते हैं अगले ब्लॉग में!

                       तब तक के लिए अलविदा!

                       

    

      

       

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